भीष्म पितामह का नेतृत्व

कुरुक्षेत्र युद्ध के आरंभिक दस दिनों तक कौरव सेना का नेतृत्व भीष्म पितामह ने किया।
उनकी अपार शक्ति और अनुभव के सामने पांडव बार-बार परास्त होते रहे।
भीष्म इतने प्रबल थे कि प्रतिदिन हजारों योद्धा उनका सामना नहीं कर पाते।


अर्जुन का संकट

अर्जुन, जो श्रीकृष्ण के सारथी थे, भीष्म का सामना करते हुए भी संकोच कर रहे थे।
क्योंकि भीष्म उनके पितामह और गुरु तुल्य थे।
भीष्म ने स्वयं कहा –
👉 “मैं पांडवों को मारना नहीं चाहता, लेकिन कौरवों की ओर से लड़ना मेरा कर्तव्य है।”


श्रीकृष्ण का संकल्प

युद्ध के दौरान जब अर्जुन भीष्म के सामने बार-बार पीछे हटने लगे, तो श्रीकृष्ण ने अपना वचन तोड़ने का संकेत दिया।
उन्होंने रथ से उतरकर चक्र उठाया और भीष्म की ओर दौड़ पड़े।
भीष्म ने हाथ जोड़कर कहा –
👉 “हे कृष्ण! आपके हाथों मरना मेरे लिए सौभाग्य होगा।”

यह देखकर अर्जुन ने कृष्ण को रोक लिया और पुनः युद्ध में लग गए।


भीष्म का पराजय

दसवें दिन श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपाय बताया –
👉 “शिखंडी को आगे रखो और उसके पीछे से बाण चलाओ।”

शिखंडी एक स्त्रीजन्म से पुरुष बने योद्धा थे और भीष्म उनके सामने शस्त्र नहीं उठाते थे।
अर्जुन ने शिखंडी के आड़ से बाणों की वर्षा की और भीष्म बाणों से विद्ध होकर शर-शैया (बाणों का बिस्तर) पर गिर पड़े।


भीष्म का शयन

भीष्म ने वरदान पाया था कि वे इच्छानुसार मृत्यु चुन सकते हैं।
इसलिए वे बाणों की शैया पर लेटे रहे और सूर्य उत्तरायण होने की प्रतीक्षा करने लगे।
पांडव और कौरव दोनों उनके पास आकर आशीर्वाद और ज्ञान प्राप्त करने लगे।


निष्कर्ष

भीष्म पितामह का शयन महाभारत का सबसे भावुक प्रसंग है।
👉 धर्मनिष्ठा, त्याग और कर्तव्य पालन का इससे बड़ा उदाहरण इतिहास में दुर्लभ है।


पिछला भाग (भाग 14) : कुरुक्षेत्र युद्ध का आरंभ और गीता उपदेश
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