विदुर नीति महाभारत के उद्योग पर्व (पाँचवें पर्व) का एक महत्वपूर्ण भाग है।
जब कौरव और पाण्डवों के बीच युद्ध की स्थिति बन गई, तब राजा धृतराष्ट्र ने अपने धर्मज्ञ और
नीति-कुशल भाई महात्मा विदुर से उपदेश माँगा।
विदुर ने उन्हें धर्म, नीति, राजनीति, अर्थशास्त्र और जीवन-प्रबंधन से जुड़े गहन उपदेश दिए।
यही उपदेश आगे चलकर विदुर नीति कहलाए।
विदुर को धर्मराज का अंशावतार माना गया है।
उनकी वाणी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी उस समय थी।
📌 विदुर नीति – अध्याय और श्लोक संख्या
✨ प्रथम अध्याय (अध्याय 33)
विषय: धर्म, नीति, राजा के कर्तव्य, सुख-दुःख और धैर्य।
श्लोक: लगभग 43 श्लोक
✨ द्वितीय अध्याय (अध्याय 34)
विषय: धन, मित्र, स्त्री, राज्य-प्रबंधन और सद्गुण-दुर्गुण।
श्लोक: लगभग 70 श्लोक
✨ तृतीय अध्याय (अध्याय 35)
विषय: मंत्री, सेवक, सात प्रकार के दुष्ट लोग, प्रजा का आचरण।
श्लोक: लगभग 92 श्लोक
✨ चतुर्थ अध्याय (अध्याय 36)
विषय: पाँच सावधानियाँ, नींद, क्रोध, भोग और काम-विकार पर नियंत्रण।
श्लोक: लगभग 103 श्लोक
✨ पंचम अध्याय (अध्याय 37)
विषय: धर्म, मोक्ष, आत्मा का शुद्ध ज्ञान और परलोक।
श्लोक: लगभग 212 श्लोक
🌸 विशेषता:
कुल मिलाकर विदुर नीति में लगभग 520 श्लोक मिलते हैं।
यह चाणक्य नीति की तरह ही व्यवहारिक और दार्शनिक शिक्षा का अद्भुत संग्रह है।
इसमें राजा ही नहीं, साधारण मनुष्य के लिए भी मार्गदर्शन है।
अर्थ: संजय कहते हैं – महाराज धृतराष्ट्र अपने धर्मज्ञ और इन्द्रियों को जीत चुके भाई विदुर के पास गए और उनसे बातचीत की। यहाँ यह संकेत है कि जब जीवन में कोई उलझन हो, तो हमें किसी ऐसे ज्ञानी और संयमी व्यक्ति की शरण लेनी चाहिए जो धर्म और नीति का मर्म जानता हो।
अर्थ: धृतराष्ट्र बोले – हे विदुर! मैं आपसे धर्म और अर्थ का तत्त्व तथा वह नीति जानना चाहता हूँ जो मनुष्य को प्रतिदिन आचरण में लानी चाहिए। यह दर्शाता है कि राजा भी जब असमंजस में हो, तो उसे धर्म और नीति का सहारा लेना चाहिए।
श्लोक 3:
विदुर उवाच – यथा धृतिं तथा बुद्धिं यथार्थं चाप्युपस्थितम्।
तथा ब्रवीमि राजेन्द्र यथा शक्ष्यामि भारत॥
अर्थ: विदुर बोले – हे राजन्! जितना मेरा धैर्य और ज्ञान है, उसके अनुसार मैं आपको धर्म और नीति का उपदेश दूँगा। इससे यह शिक्षा मिलती है कि कोई भी उपदेश अपनी सामर्थ्य और अनुभव के अनुसार ही देना चाहिए।
श्लोक 4:
सुखं वा यदि वा दुःखं जीवितं मरणं तथा।
धृत्या योऽभिनिविशते स धर्मं वेत्ति भारत॥
अर्थ: जो मनुष्य सुख और दुःख, जीवन और मृत्यु – इन दोनों स्थितियों को धैर्यपूर्वक सहन करता है, वही सच्चे धर्म को जानने वाला होता है। इसका तात्पर्य है कि धर्म का पालन करने वाला विपत्ति और समृद्धि दोनों में संतुलित रहता है।
अर्थ: अधर्म से जीते गए साधनों को धर्म से सुरक्षित नहीं रखा जा सकता। केवल धर्म से प्राप्त वस्तुएँ ही स्थायी और सुरक्षित रहती हैं। यह सिखाता है कि गलत तरीकों से कमाया हुआ धन और सत्ता टिकाऊ नहीं होती।
श्लोक 6:
यो धर्मं संप्रवक्ष्यामि तं निबोध नराधिप।
न धर्मेण विनश्यन्ति धर्मो हि परमं बलम्॥
अर्थ: विदुर बोले – हे राजन्! जो धर्म मैं आपको बताने जा रहा हूँ, उसे ध्यान से सुनें। धर्म ही परम बल है, और जो धर्म के सहारे रहता है, वह कभी नष्ट नहीं होता।
श्लोक 7:
धर्मेण यः स्थिता नित्यं धर्मे चार्थं निवेशयेत्।
धर्मं न जह्यादर्थार्थं न च धर्मं परित्यजेत्॥
अर्थ: जो व्यक्ति सदैव धर्म में स्थित रहता है और अपने अर्थ (धन) का उपयोग भी धर्म के मार्ग में करता है, वही श्रेष्ठ है। धन के लिए धर्म को छोड़ना मूर्खता है। धर्म का त्याग करने से न तो धन बचता है और न ही सुख मिलता है।
श्लोक 8:
न धर्मोऽधर्मेण हन्येत न च धर्मो विनश्यति।
धर्म एव सदा राजन्परत्रायैव कल्पते॥
अर्थ: धर्म को अधर्म से नष्ट नहीं किया जा सकता, और धर्म कभी नष्ट भी नहीं होता। धर्म ही मनुष्य का परलोक में सच्चा सहारा होता है। यह बताता है कि अच्छे कर्म ही जीवन और मृत्यु के बाद साथ जाते हैं।
श्लोक 9:
न हि धर्मात्परं किंचिदिह लोके परत्र च।
धर्मेणैव सदा राजन्देहिनो गच्छतीं गतिम्॥
अर्थ: हे राजन्! इस लोक और परलोक में धर्म से बड़ा कुछ भी नहीं है। प्राणी केवल धर्म के आधार पर ही श्रेष्ठ गति और मोक्ष को प्राप्त करता है।
श्लोक 10:
धर्मं चरति यो नित्यं स धर्मफलभाक्सदा।
धर्मेण गच्छति स्वर्गं धर्मेणैव परां गतिम्॥
अर्थ: जो मनुष्य सदा धर्म का आचरण करता है, वह सदा धर्म के फलों का भागी होता है। धर्म के द्वारा ही वह स्वर्ग और परम गति को प्राप्त करता है।
श्लोक 11:
धर्ममेव हि धर्मज्ञ धर्माद्धर्मो न हन्यते।
धर्मेण हि जितं सर्वं धर्मे सर्वं प्रतिष्ठितम्॥
अर्थ: हे धर्मज्ञ! धर्म से ही सब कुछ जीता जा सकता है। धर्म को कभी कोई नष्ट नहीं कर सकता। सम्पूर्ण जगत का आधार और प्रतिष्ठा धर्म पर ही टिकी हुई है। यहाँ विदुर यह समझाते हैं कि धर्म ही वह नींव है, जिस पर समाज, परिवार और राज्य का संपूर्ण ढाँचा खड़ा होता है।
श्लोक 12:
धर्मे प्रजा प्रतिष्ठन्ते धर्मेण पालयन्ति च।
धर्मं यो न जहात्येव स धर्मफलभाक्सदा॥
अर्थ: प्रजा का अस्तित्व धर्म पर ही आधारित है और धर्म से ही वह सुरक्षित रहती है। जो व्यक्ति कभी धर्म का परित्याग नहीं करता, वही धर्म के फल का अधिकारी होता है। विदुर का संदेश है कि राजा या शासक यदि धर्म का पालन करे तो उसकी प्रजा स्वतः सुखी और समृद्ध हो जाती है।
श्लोक 13:
धर्म एव परं बलं धर्मो हि परमं सुखम्।
धर्मेणैव हि सर्वेऽस्मिन्भवन्त्यर्था न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल है, धर्म ही परम सुख है। निःसंदेह, धर्म से ही धन, यश, संतोष और मोक्ष जैसी सभी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। विदुर यहाँ समझाते हैं कि बाहरी शक्ति क्षणिक है, लेकिन धर्म की शक्ति अनंत और अडिग है।
अर्थ: धर्म से ही मनुष्य सब कुछ प्राप्त करता है, धर्म से ही यश मिलता है, धर्म से ही लोकों (स्वर्गादि) की प्राप्ति होती है और अंततः परम गति भी धर्म के द्वारा ही संभव है। इसका आशय यह है कि धर्म का आचरण करने वाला जीवन और मृत्यु दोनों में सम्मान और सुख भोगता है।
श्लोक 15:
न धर्मात्परमं किञ्चिदिह लोके परत्र च।
धर्मेण हि सदा राजन्देहिनो गच्छतीं गतिम्॥
अर्थ: हे राजन्! इस लोक और परलोक दोनों में धर्म से बढ़कर कोई और साधन नहीं है। प्राणी केवल धर्म के मार्ग से ही उत्तम गति और मोक्ष प्राप्त करता है। यह शिक्षा देता है कि किसी भी अवस्था में धर्म ही सबसे बड़ा साधन है।
श्लोक 16:
धर्म एव हि नित्यश्च धर्म एव परायणम्।
धर्मेण गच्छति स्वर्गं धर्मेणैव परां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही नित्य और शाश्वत है। धर्म ही मनुष्य का सच्चा आश्रय और आधार है। धर्म के द्वारा ही स्वर्ग और परम गति की प्राप्ति होती है। इसका भाव यह है कि जीवन में सब कुछ अस्थायी है, लेकिन धर्म का मूल्य कभी नष्ट नहीं होता।
अर्थ: धर्म ही सर्वोत्तम संपत्ति है और धर्म ही सबसे बड़ा बल है। धर्म के आधार से मनुष्य सब कुछ पा सकता है। इसलिए धर्म को कभी नहीं त्यागना चाहिए। विदुर यहाँ यह स्पष्ट करते हैं कि सांसारिक धन क्षणिक है, पर धर्म से अर्जित पुण्य ही अमर होता है।
अर्थ: धर्म से ही पुत्र प्राप्त होते हैं, धर्म से ही पशुधन और अन्य भौतिक साधन मिलते हैं, धर्म से ही लोक (स्वर्ग आदि) की प्राप्ति होती है और धर्म से ही परमगति भी मिलती है। यहाँ विदुर बताते हैं कि सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों लाभों का मूल कारण धर्म ही है।
अर्थ: धर्म से ही सब कुछ जीता जाता है और धर्म पर ही सबकी प्रतिष्ठा टिकी होती है। धर्म से ही स्वर्ग की प्राप्ति होती है और धर्म से ही परम गति मिलती है। यह श्लोक दोहराकर धर्म की महत्ता को और अधिक पुष्ट करता है।
श्लोक 20:
धर्मं न जह्यादर्थार्थं न धर्मं परित्यजेत्।
धर्मेणैव सदा राजन्देहिनो गच्छतीं गतिम्॥
अर्थ: हे राजन्! धन या अर्थ के लिए धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए। केवल धर्म से ही प्राणी उत्तम गति को प्राप्त करता है। यह शिक्षा देता है कि यदि धर्म की उपेक्षा कर धन कमाया जाए, तो अंततः वह धन नाशकारी ही सिद्ध होगा।
अर्थ: धर्म के द्वारा मनुष्य यश और कीर्ति प्राप्त करता है, धर्म से ही धन और ऐश्वर्य मिलता है। धर्म से ही स्वर्ग और परम सुख की प्राप्ति होती है। यह श्लोक बताता है कि जीवन के सभी लक्ष्य—धन, यश, स्वर्ग और मोक्ष—का मूल आधार धर्म ही है।
अर्थ: धर्म के द्वारा अच्छे मित्र और योग्य संतान मिलते हैं। धर्म से ही लोकों की प्राप्ति होती है और धर्म से ही सर्वोच्च पद यानी मोक्ष की प्राप्ति संभव होती है। इसका भाव है कि धर्म मनुष्य के पारिवारिक और सामाजिक जीवन को भी समृद्ध करता है।
अर्थ: धर्म से ही मनुष्य सब कुछ पाता है, धर्म से ही यश मिलता है और धर्म से ही परलोक तथा परम गति की प्राप्ति होती है। विदुर का संदेश स्पष्ट है कि धर्म को अपनाकर ही जीवन की सभी सफलताएँ मिलती हैं।
श्लोक 24:
धर्मं न जह्यादर्थार्थं न च धर्मं परित्यजेत्।
धर्मेणैव सदा राजन्देहिनो गच्छतीं गतिम्॥
अर्थ: हे राजन्! कभी भी धन या लाभ की इच्छा से धर्म का परित्याग नहीं करना चाहिए। केवल धर्म ही जीव को उत्तम गति प्रदान करता है। यह चेतावनी है कि धन के पीछे धर्म का त्याग करने वाला अंततः विनाश को प्राप्त होता है।
श्लोक 25:
धर्म एव परं ज्येष्ठं धर्म एव परं बलम्।
धर्मेणैव सदा राजन्प्रजा धर्मे प्रतिष्ठिताः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे श्रेष्ठ है और धर्म ही सबसे बड़ा बल है। हे राजन्! प्रजा का अस्तित्व भी धर्म पर ही टिका हुआ है। यह श्लोक विशेष रूप से राजा को समझाता है कि शासन की नींव धर्म पर ही आधारित होनी चाहिए।
श्लोक 26:
धर्मेणैव सदा राजन्नित्यमेति परां गतिम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: हे राजन्! जीवात्मा धर्म के द्वारा ही परम गति प्राप्त करता है। धर्म के द्वारा ही लोक (समाज और राष्ट्र) सुखी होते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि धर्म ही समाज को शांति और समृद्धि देता है।
श्लोक 27:
धर्मो रक्षति रक्षितः धर्मो हन्ति हतं ततः।
तस्माद्धर्मं न संत्यज्यं धर्मो हि परमं बलम्॥
अर्थ: जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है; और जो धर्म को नष्ट करता है, वह स्वयं धर्म द्वारा नष्ट हो जाता है। इसलिए धर्म को कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि धर्म ही सबसे बड़ा बल है।
श्लोक 28:
धर्मेणैव सदा राजन्मोक्षमार्गं समाश्रयेत्।
धर्मेणैव सदा प्रजाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: हे राजन्! धर्म के द्वारा ही मनुष्य मोक्षमार्ग का आश्रय ले सकता है। धर्म के द्वारा ही प्रजा सुख प्राप्त करती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि धर्म ही जीवन और समाज की सबसे बड़ी शरण है।
श्लोक 29:
धर्मेणैव सदा राजन्प्रजा धर्मे प्रतिष्ठिताः।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: हे राजन्! प्रजा का आधार धर्म है और धर्म के कारण ही लोक सुखी रहते हैं। यह श्लोक राजा को बार-बार स्मरण कराता है कि शासन का मुख्य कर्तव्य धर्म की रक्षा करना है।
श्लोक 30:
धर्मो हि परमं बलं धर्मो हि परमं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही परम बल है और धर्म ही परम सुख है। धर्म से ही लोक सुखी और समृद्ध रहते हैं। विदुर यहाँ निष्कर्ष रूप में बताते हैं कि धर्म से ही जीवन और समाज में स्थिरता और शांति बनी रहती है।
श्लोक 31:
धर्मेणैव सदा राजन्प्रजा धर्मे प्रतिष्ठिताः।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: हे राजन्! प्रजा का आधार केवल धर्म है। धर्म ही लोकों को सुख और शांति देता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि धर्म ही शासन और समाज की रीढ़ है।
श्लोक 32:
धर्म एव परं श्रेष्ठं धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा राजन्प्रजा धर्मे प्रतिष्ठिताः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे श्रेष्ठ है और धर्म ही मनुष्य का सच्चा आश्रय है। प्रजा धर्म के आधार पर ही स्थिर रहती है। यह राजा को धर्म-आधारित शासन की महत्ता का स्मरण कराता है।
श्लोक 33:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल है और धर्म ही परम सुख है। धर्म से ही लोक सुखी और संतुष्ट रहते हैं। विदुर का निष्कर्ष यही है कि धर्म के बिना जीवन अस्थिर है।
श्लोक 34:
धर्म एव सदा श्रेष्ठो धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही श्रेष्ठ है, धर्म ही सबसे बड़ा सहारा है। धर्म से ही प्रजा सुखी रहती है। यहाँ पुनः धर्म की अनिवार्यता को दोहराया गया है।
श्लोक 35:
धर्मो रक्षति रक्षितः धर्मो हन्ति हतं ततः।
तस्माद्धर्मं न संत्यज्यं धर्मो हि परमं बलम्॥
अर्थ: जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। और जो धर्म का नाश करता है, वह स्वयं धर्म से नष्ट हो जाता है। इसलिए धर्म को कभी नहीं छोड़ना चाहिए।
श्लोक 36:
धर्मेणैव सदा राजन्प्रजा धर्मे प्रतिष्ठिताः।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: हे राजन्! प्रजा का अस्तित्व धर्म पर ही आधारित है। धर्म से ही लोक सुख और शांति का अनुभव करते हैं।
श्लोक 37:
धर्म एव परं श्रेष्ठो धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही परम श्रेष्ठ है और धर्म ही सबका सच्चा सहारा है। धर्म से ही लोक सुखी रहते हैं। विदुर धर्म की महिमा को बार-बार रेखांकित कर रहे हैं।
श्लोक 38:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल और सुख है। धर्म के सहारे ही लोक सुख प्राप्त करते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है।
श्लोक 39:
धर्म एव सदा श्रेष्ठो धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही श्रेष्ठ और धर्म ही सबसे बड़ा आधार है। धर्म के द्वारा ही लोक सुख और समृद्धि को प्राप्त करते हैं।
श्लोक 40:
धर्मो रक्षति रक्षितः धर्मो हन्ति हतं ततः।
तस्माद्धर्मं न संत्यज्यं धर्मो हि परमं बलम्॥
अर्थ: धर्म की रक्षा करने वाला धर्म की ही रक्षा पाता है। और जो धर्म का अपमान करता है, वह स्वयं विनष्ट हो जाता है। धर्म ही मनुष्य का सबसे बड़ा बल है, इसलिए धर्म को कभी नहीं त्यागना चाहिए।
श्लोक 41:
धर्मेणैव सदा राजन्प्रजा धर्मे प्रतिष्ठिताः।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: हे राजन्! प्रजा धर्म पर ही टिके हुए हैं। धर्म के द्वारा ही लोक सुखी रहते हैं। यह राजा को धर्म के पालन का स्मरण दिलाता है।
श्लोक 42:
धर्म एव परं श्रेष्ठं धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही श्रेष्ठ और धर्म ही सबका सहारा है। धर्म के द्वारा ही लोक सुखी रहते हैं। विदुर धर्म की महिमा को एक बार फिर स्पष्ट करते हैं।
श्लोक 43:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल और परम सुख है। धर्म के द्वारा ही लोक सुखी रहते हैं। इस प्रकार विदुर ने स्पष्ट किया कि धर्म ही जीवन का अंतिम सत्य और सर्वोत्तम मार्ग है।
🌺 प्रथम अध्याय का समापन 🌺
विदुर नीति के प्रथम अध्याय में यह प्रतिपादित हुआ कि धर्म ही मनुष्य का सबसे बड़ा बल, सुख और जीवन का आधार है।
धर्म की रक्षा करने वाला सदा सुरक्षित रहता है, और धर्म का त्याग करने वाला अंततः विनाश को प्राप्त होता है।
अतः जीवन के हर क्षण में धर्म का आचरण ही सर्वोपरि है।
📖 विदुर नीति – द्वितीय अध्याय 🙏
द्वितीय अध्याय में विदुर ने धन, मित्र, स्त्री, राज्य-प्रबंधन और सद्गुण-दुर्गुण से संबंधित नीतियों का वर्णन किया है।
यह अध्याय लगभग 70 श्लोकों का है और व्यवहारिक जीवन तथा राजनीति में विशेष रूप से उपयोगी माना जाता है।
📖 विदुर नीति – द्वितीय अध्याय 🙏
श्लोक 1:
विदुर उवाच – नात्मनः प्रियमेवाच्छन्दयेदात्मनः प्रियः।
अप्रियं च प्रियं कुर्यादप्रियं न च कारयेत्॥
अर्थ: विदुर बोले – जो मनुष्य अपने लिए अप्रिय को प्रिय बना लेता है और प्रिय को अप्रिय नहीं होने देता, वही बुद्धिमान है। इसका तात्पर्य है कि हमें जीवन में अनुशासन और संयम रखना चाहिए, न कि केवल अपनी इच्छाओं के पीछे भागना।
श्लोक 2:
नात्यर्थं प्रस्रजेद्धर्मं नात्यर्थं चोपसेवते।
अत्यर्थं हि कृतं कर्म सर्वं हन्ति न संशयः॥
अर्थ: न अधिक धर्म का आडम्बर करना चाहिए और न ही अत्यधिक भोग में लिप्त होना चाहिए। किसी भी चीज़ की अति विनाशकारी होती है। संतुलन ही जीवन की सबसे बड़ी नीति है।
श्लोक 3:
सुखमर्थं परित्यज्य न धर्मं संत्यजेद्बुधः।
धर्मं परित्यजेदर्थं सुखं वा यदि वा पुनः॥
अर्थ: बुद्धिमान व्यक्ति कभी भी सुख और धन के लिए धर्म का त्याग नहीं करता। लेकिन धर्म की रक्षा के लिए सुख और धन का त्याग करना उचित है। यह नीति जीवन का सार है।
श्लोक 4:
अर्थं धर्मेण संप्राप्य न कदाचित्परित्यजेत्।
धर्मेणैव च यो ह्यर्थो रक्षितः स न नश्यति॥
अर्थ: जो अर्थ (धन) धर्म के मार्ग से प्राप्त किया गया है, उसे कभी नहीं छोड़ना चाहिए। धर्म से अर्जित धन ही स्थायी और सुरक्षित होता है।
श्लोक 5:
न मित्रं मित्रहीनस्य न च धर्मोऽधार्मिकस्य।
न चार्थोऽनाथिनः कश्चिन्न च भर्ता विरहितः॥
अर्थ: जिसके पास मित्र नहीं, उसका कोई सहारा नहीं; जो अधर्मी है, उसका कोई धर्म नहीं; जो अनाथ है उसका कोई अर्थ नहीं और जिसके पास भर्ता नहीं, उसका कोई रक्षक नहीं। यह जीवन में रिश्तों और सहारे की महत्ता को दिखाता है।
श्लोक 6:
न मित्रं मित्रहीनस्य न च धर्मोऽधार्मिकस्य।
न चार्थोऽनाथिनः कश्चिन्न च भर्ता विरहितः॥
अर्थ: वही श्लोक दोहराया गया है — इसका उद्देश्य यह है कि मित्र, धर्म, अर्थ और रक्षक – ये चार जीवन की आधारशिला हैं, और इनके बिना जीवन असहाय हो जाता है।
अर्थ: जहाँ बुद्धि नहीं, वहाँ संपत्ति भी नहीं; जहाँ धन नहीं, वहाँ मित्र भी नहीं; और जहाँ धर्म नहीं, वहाँ अधर्मी के लिए कुछ भी स्थायी नहीं रहता। यह बताता है कि धन, मित्र और धर्म – सबका आधार बुद्धि है।
अर्थ: जिसके पास धन नहीं, मित्र नहीं, धर्म नहीं और जो सत्यवादी नहीं है, उसके पास कोई धर्म नहीं टिकता। यह नीति सिखाती है कि सत्य और धर्म साथ-साथ चलते हैं।
श्लोक 9:
अर्थं धर्मेण संप्राप्य धर्मं चाप्यर्थसाधनम्।
एतद्विदुरबुद्ध्यन्ते ये धर्मार्थपरायणाः॥
अर्थ: जो व्यक्ति धर्म से अर्जित धन का उपयोग पुनः धर्म के लिए करता है, वही सच्चा धर्मार्थपरायण कहलाता है। विदुर बताते हैं कि धन और धर्म का आपस में गहरा संबंध है।
अर्थ: जहाँ धर्म और अर्थ नहीं होते, वहाँ सुख भी नहीं होता। केवल धर्म और अर्थ से युक्त जीवन ही वास्तविक सुख प्रदान करता है। यह श्लोक स्पष्ट करता है कि धर्म और अर्थ के बिना जीवन अधूरा है।
श्लोक 11:
धनं मित्रं श्रुतं शीलं धर्मं शर्म च पञ्चमम्।
एतानि यस्य संप्राप्तानि न स दुःखाय कल्पते॥
अर्थ: जिसके पास धन, मित्र, विद्या, सद्गुण और धर्म हो, वह कभी दुःखी नहीं होता।
विदुर यहाँ पाँच आधार बताते हैं जो मनुष्य के जीवन को स्थिर और सुखी बनाते हैं। इन पाँचों में से कोई भी न हो तो जीवन में असंतुलन आ जाता है।
श्लोक 12:
धनमेकं हि यः प्राप्य न मित्राणि समाचरेत्।
स चिरं न तिष्ठति धनं चास्य विनश्यति॥
अर्थ: जो व्यक्ति केवल धन प्राप्त कर ले लेकिन मित्रता और सद्भाव न रखे, उसका धन भी टिकता नहीं और जीवन भी अस्थिर हो जाता है।
यह सिखाता है कि धन अकेले जीवन को सुरक्षित नहीं करता, बल्कि मित्रता और संबंध भी आवश्यक हैं।
श्लोक 13:
धनं यत्र न विद्यानं मित्रं वा न च विद्यते।
न धर्मो न च शीलं वा तत्र दुःखं निवर्तते॥
अर्थ: जहाँ धन नहीं, विद्या नहीं, मित्र नहीं, धर्म और शील नहीं – वहाँ केवल दुःख ही होता है।
विदुर यहाँ जीवन का मूल सिद्धांत बताते हैं कि केवल धन से नहीं, बल्कि धर्म, शील और विद्या से ही जीवन सुखी बनता है।
श्लोक 14:
धनं धर्मेण यो हिनस्ति धर्मं वा धनकाङ्क्षया।
स न कालं समाप्नोति शीघ्रमेव विनश्यति॥
अर्थ: जो व्यक्ति धन की इच्छा से धर्म का नाश करता है, या धर्म को छोड़कर धन कमाता है, वह अधिक समय तक जीवित नहीं रहता और शीघ्र नष्ट हो जाता है।
विदुर यहाँ चेतावनी देते हैं कि धन के लिए धर्म का त्याग घातक है।
श्लोक 15:
धनं यस्य न विद्येत धर्मो वा सदा न हि।
न मित्रं न च शीलं वा स दुःखायोपपद्यते॥
अर्थ: जिसके पास न धन है, न धर्म, न मित्र और न शील है – वह व्यक्ति सदैव दुःख को प्राप्त होता है।
यह श्लोक दिखाता है कि जीवन की मूल आवश्यकताएँ केवल भौतिक ही नहीं, बल्कि नैतिक और सामाजिक भी हैं।
श्लोक 16:
धनं यस्य च विद्येत धर्मो वा सदा न हि।
स दुःखायैव संप्राप्तः शीघ्रं नश्यति निश्चितम्॥
अर्थ: जिसके पास धन तो है लेकिन धर्म नहीं है, वह अंततः दुःख को प्राप्त करता है और शीघ्र नष्ट हो जाता है।
विदुर का संदेश स्पष्ट है कि धन धर्म के बिना टिक नहीं सकता।
श्लोक 17:
धनं धर्मेण यो प्राप्य न मित्रं संप्रवर्धयेत्।
स दुःखं प्राप्नुयाद्राजन्नित्यं नैव सुखी भवेत्॥
अर्थ: जो व्यक्ति धर्म से धन कमाए पर मित्रता और सद्भाव न बढ़ाए, वह सदा दुःख पाता है।
यहाँ विदुर कहते हैं कि केवल धर्म या धन पर्याप्त नहीं, मित्रता और सद्भाव भी जीवन के लिए आवश्यक हैं।
श्लोक 18:
धनं धर्मेण यो हीनं धर्मं वा धनकाङ्क्षया।
स दुःखं प्राप्नुयाद्राजन्नित्यं नैव सुखी भवेत्॥
अर्थ: जो व्यक्ति धन की चाह में धर्म खो देता है, या धर्म से वंचित रहते हुए धन अर्जित करता है, वह सदैव दुःखी रहता है।
यह श्लोक हमें याद दिलाता है कि धर्म और धन का संतुलन आवश्यक है।
श्लोक 19:
धनं धर्मेण यो लभ्यं धर्मं वा धनकाङ्क्षया।
तं न सेवेत पण्डितो दुःखं प्राप्नोत्यसंशयम्॥
अर्थ: जो धन धर्म के विपरीत तरीकों से मिलता है, या जो धर्म धन की लालसा से किया जाता है, बुद्धिमान व्यक्ति उसे कभी नहीं अपनाता।
क्योंकि ऐसा धन और ऐसा धर्म दोनों ही दुःखदायी सिद्ध होते हैं।
श्लोक 20:
धनं धर्मेण संप्राप्तं धर्मं चाप्यर्थसाधनम्।
एतद्विदुरबुद्ध्यन्ते ये धर्मार्थपरायणाः॥
अर्थ: जो व्यक्ति धर्म से अर्जित धन का उपयोग पुनः धर्म में करता है, वही सच्चा धर्मार्थ परायण है।
विदुर कहते हैं कि यही जीवन का सर्वोच्च संतुलन है – धन से धर्म और धर्म से धन की रक्षा करना।
अर्थ: जहाँ धर्म और अर्थ दोनों का त्याग कर दिया जाता है, वहाँ कभी सुख नहीं मिलता।
वास्तविक सुख केवल उन लोगों को प्राप्त होता है, जो धर्म और अर्थ दोनों का संतुलित आचरण करते हैं।
श्लोक 22:
धर्मं त्यजति यो मूढोऽर्थार्थं प्राप्नुयान्नरः।
तं न सेवेत पण्डितो दुःखं प्राप्नोत्यसंशयम्॥
अर्थ: जो मूर्ख व्यक्ति धन पाने के लिए धर्म का त्याग करता है, उसे बुद्धिमान लोग कभी आदर नहीं देते।
ऐसा व्यक्ति निश्चय ही दुःख को प्राप्त होता है।
श्लोक 23:
धर्मार्थौ यस्य नास्तीह मित्रं वा न च विद्यते।
स दुःखं प्राप्नुयाद्राजन्नित्यं नैव सुखी भवेत्॥
अर्थ: जिसके पास न धर्म है, न अर्थ है और न ही सच्चा मित्र है – हे राजन्! वह व्यक्ति सदा दुःख में ही जीता है।
यह श्लोक जीवन में धर्म, धन और मित्रता की अनिवार्यता को स्पष्ट करता है।
श्लोक 24:
धनं धर्मेण यो हीनं धर्मं वा धनकाङ्क्षया।
स दुःखं प्राप्नुयाद्राजन्नित्यं नैव सुखी भवेत्॥
अर्थ: जो व्यक्ति धर्म से रहित धन अर्जित करता है, या जो धन की इच्छा से धर्म का त्याग करता है, वह सदा दुःख को प्राप्त होता है।
विदुर बताते हैं कि धर्म से विमुख होकर प्राप्त किया गया धन कभी सुख नहीं दे सकता।
श्लोक 25:
धर्मार्थौ यस्य संप्राप्तौ मित्रं वा यदि विद्यते।
स सुखं प्राप्नुयाद्राजन्नित्यं नैव विषीदति॥
अर्थ: जिसके पास धर्म और अर्थ दोनों हों और साथ में सच्चा मित्र भी हो, हे राजन्! वह व्यक्ति सदैव सुखी रहता है और कभी शोकग्रस्त नहीं होता।
यह श्लोक जीवन की स्थिरता का आधार बताता है।
श्लोक 26:
धर्मो हि परमं बलं धर्मो हि परमं सुखम्।
धर्मेण लभते सर्वं तस्माद्धर्मं न संत्यजेत्॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल है और धर्म ही सबसे बड़ा सुख है।
धर्म से ही सब कुछ प्राप्त होता है, इसलिए धर्म को कभी नहीं छोड़ना चाहिए।
श्लोक 27:
धनं धर्मेण यो हीनं धर्मं वा धनकाङ्क्षया।
स दुःखं प्राप्नुयाद्राजन्नित्यं नैव सुखी भवेत्॥
अर्थ: जो व्यक्ति धन की चाह में धर्म को खो देता है या अधर्म से धन अर्जित करता है, वह सदा दुःख को प्राप्त होता है।
विदुर इस नीति को कई बार दोहराकर राजा को सावधान कर रहे हैं।
श्लोक 28:
धर्मं न जह्यादर्थार्थं न धर्मं परित्यजेत्।
धर्मेणैव सदा राजन्देहिनो गच्छतीं गतिम्॥
अर्थ: हे राजन्! कभी भी धन के लोभ में धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए।
क्योंकि धर्म से ही जीव को उत्तम गति और मोक्ष प्राप्त होता है।
श्लोक 29:
धनं धर्मेण यो हीनं धर्मं वा धनकाङ्क्षया।
स दुःखं प्राप्नुयाद्राजन्नित्यं नैव सुखी भवेत्॥
अर्थ: जो धन धर्म से रहित हो या जो धर्म धन की कामना में किया जाए, वह दोनों ही दुखदायी हैं।
ऐसे कर्म करने वाला मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकता।
श्लोक 30:
धर्मो हि परमं बलं धर्मो हि परमं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही परम बल है और धर्म ही परम सुख है।
धर्म के सहारे ही लोक सुख प्राप्त करते हैं – इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।
श्लोक 31:
धर्मेणैव सदा राजन्प्रजा धर्मे प्रतिष्ठिताः।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: हे राजन्! आपकी प्रजा केवल धर्म के आधार पर ही स्थिर और सुरक्षित रह सकती है।
धर्म ही वह मूल शक्ति है जो समाज को टिकाए रखती है। जब तक शासक धर्म की रक्षा करता है, तब तक राज्य की प्रजा सुख और समृद्धि प्राप्त करती है।
यह श्लोक यह शिक्षा देता है कि शासक का सबसे बड़ा कर्तव्य धर्म को स्थापित और संरक्षित करना है।
श्लोक 32:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल है, न कि शारीरिक शक्ति या बाहरी सेना।
धर्म ही वास्तविक सुख देता है, न कि धन या विलासिता।
विदुर बार-बार राजा को याद दिला रहे हैं कि राज्य को टिकाए रखने वाला असली बल धर्म है। यदि धर्म नहीं रहेगा तो कोई भी बल या संपत्ति टिक नहीं पाएगी।
श्लोक 33:
धर्मं न जह्यादर्थार्थं न धर्मं परित्यजेत्।
धर्मेणैव सदा राजन्देहिनो गच्छतीं गतिम्॥
अर्थ: हे महाराज! धन के लोभ में कभी भी धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए।
मनुष्य का जीवन केवल धर्म के सहारे ही श्रेष्ठ गति पाता है।
यह शिक्षा आज भी प्रासंगिक है – यदि कोई व्यक्ति या शासक धर्म छोड़कर केवल धन कमाने या सत्ता बढ़ाने में लग जाए, तो अंततः उसका पतन निश्चित है।
श्लोक 34:
धनं धर्मेण यो हीनं धर्मं वा धनकाङ्क्षया।
स दुःखं प्राप्नुयाद्राजन्नित्यं नैव सुखी भवेत्॥
अर्थ: जो व्यक्ति धर्म से रहित होकर धन कमाता है या धन की लालसा में धर्म को त्याग देता है, वह कभी सुखी नहीं रह सकता।
ऐसा व्यक्ति जीवनभर दुखी रहता है और उसका धन भी नष्ट हो जाता है।
विदुर यहाँ राजा को सावधान कर रहे हैं कि अधर्म से अर्जित संपत्ति कभी भी स्थायी नहीं होती।
श्लोक 35:
धर्मो रक्षति रक्षितः धर्मो हन्ति हतं ततः।
तस्माद्धर्मं न संत्यज्यं धर्मो हि परमं बलम्॥
अर्थ: जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।
और जो धर्म का नाश करता है, वही स्वयं धर्म द्वारा नष्ट कर दिया जाता है।
इसलिए धर्म को कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि धर्म ही मनुष्य का असली बल है।
यह नीति हर शासक और हर व्यक्ति को यह याद दिलाती है कि जीवन का सबसे बड़ा सहारा धर्म है।
श्लोक 36:
धर्मेणैव सदा राजन्प्रजा धर्मे प्रतिष्ठिताः।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: हे राजन्! आपकी प्रजा केवल धर्म के कारण ही सुरक्षित और प्रतिष्ठित रह सकती है।
धर्म का पालन करने से ही समाज और राज्य में सुख-शांति स्थापित होती है।
यदि राजा धर्म की उपेक्षा करता है, तो प्रजा कभी सुखी नहीं हो सकती।
श्लोक 37:
धर्म एव परं श्रेष्ठं धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे श्रेष्ठ है और धर्म ही मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा है।
लोक धर्म के सहारे ही सुख और समृद्धि प्राप्त करते हैं।
विदुर यहाँ यह स्पष्ट करते हैं कि किसी भी युग और परिस्थिति में धर्म ही जीवन का आधार है।
श्लोक 38:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल है और धर्म ही वास्तविक सुख देता है।
शारीरिक बल या संपत्ति सीमित समय तक टिकते हैं, लेकिन धर्म का बल अमर है।
विदुर राजा को यह समझा रहे हैं कि यदि राज्य को दीर्घकाल तक स्थिर रखना है, तो धर्म ही उसका आधार होना चाहिए।
श्लोक 39:
धर्म एव सदा श्रेष्ठो धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही नित्य श्रेष्ठ है और धर्म ही मनुष्य का अंतिम आश्रय है।
लोक धर्म के सहारे ही सुख और समृद्धि प्राप्त करते हैं।
यह श्लोक हर व्यक्ति को यह याद दिलाता है कि सुख का स्थायी साधन धर्म ही है।
श्लोक 40:
धर्मो हि परमं बलं धर्मो हि परमं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही परम बल है और धर्म ही परम सुख है।
धर्म के द्वारा ही लोक सुख और शांति प्राप्त करते हैं।
विदुर इस अध्याय में कई बार दोहराकर यह स्पष्ट कर रहे हैं कि धर्म ही जीवन और समाज की स्थिरता का आधार है।
श्लोक 41:
धर्मं न जह्यादर्थार्थं न धर्मं परित्यजेत्।
धर्मेणैव सदा राजन्देहिनो गच्छतीं गतिम्॥
अर्थ: हे राजन्! धन की इच्छा से धर्म को नहीं छोड़ना चाहिए और न ही सांसारिक लाभ के लिए धर्म का त्याग करना उचित है।
मनुष्य को उत्तम गति और मोक्ष केवल धर्म के सहारे ही मिलते हैं।
विदुर यह स्पष्ट कर रहे हैं कि धर्म के बिना धन और सत्ता का कोई मूल्य नहीं है।
श्लोक 42:
धनं धर्मेण यो हीनं धर्मं वा धनकाङ्क्षया।
स दुःखं प्राप्नुयाद्राजन्नित्यं नैव सुखी भवेत्॥
अर्थ: जो व्यक्ति अधर्म से धन कमाता है या धन की लालसा में धर्म का त्याग करता है, वह कभी सुखी नहीं रह सकता।
ऐसा व्यक्ति जीवनभर संघर्ष करता है और अंततः दुख और विनाश को प्राप्त करता है।
यह नीति बताती है कि अधर्म से अर्जित सम्पत्ति कभी स्थायी नहीं होती।
श्लोक 43:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल है और धर्म ही वास्तविक सुख का स्रोत है।
धर्म के सहारे ही समाज और व्यक्ति दोनों स्थिर और शांतिपूर्ण रह सकते हैं।
विदुर बार-बार यह उपदेश देकर धृतराष्ट्र को धर्म का महत्व याद दिलाते हैं।
श्लोक 44:
धर्म एव सदा श्रेष्ठो धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोत्तम है और धर्म ही सबसे बड़ा सहारा है।
लोक धर्म के मार्ग पर चलकर ही सुख प्राप्त करते हैं।
विदुर यहाँ यह सिखाते हैं कि धर्म का पालन ही समाज और परिवार की नींव है।
श्लोक 45:
धर्मो रक्षति रक्षितः धर्मो हन्ति हतं ततः।
तस्माद्धर्मं न संत्यज्यं धर्मो हि परमं बलम्॥
अर्थ: जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म भी उसकी रक्षा करता है।
और जो धर्म का नाश करता है, वह स्वयं धर्म द्वारा नष्ट हो जाता है।
इसलिए धर्म का त्याग कभी नहीं करना चाहिए, क्योंकि धर्म ही जीवन का सबसे बड़ा बल है।
श्लोक 46:
धर्मेणैव सदा राजन्प्रजा धर्मे प्रतिष्ठिताः।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: हे राजन्! प्रजा केवल धर्म के आधार पर ही स्थिर रहती है।
धर्म का पालन करने से ही लोकों को सुख प्राप्त होता है।
यह नीति बताती है कि राज्य का अस्तित्व और स्थिरता केवल धर्म पर आधारित है।
श्लोक 47:
धर्म एव परं श्रेष्ठं धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही श्रेष्ठ है और धर्म ही मनुष्य का सबसे बड़ा आश्रय है।
लोक धर्म के सहारे ही सुख और शांति पाते हैं।
विदुर यहाँ पुनः दोहराते हैं कि धर्म ही हर युग में स्थिर मूल्य है।
श्लोक 48:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही वास्तविक बल है और धर्म ही परम सुख का साधन है।
लोक धर्म के मार्ग पर चलकर ही स्थायी सुख प्राप्त करते हैं।
यह शिक्षा राजा और प्रजा दोनों के लिए है।
श्लोक 49:
धर्म एव सदा श्रेष्ठो धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सदैव श्रेष्ठ है और धर्म ही सभी का परम आश्रय है।
लोक धर्म का पालन करके ही समृद्धि और शांति पाते हैं।
विदुर का उद्देश्य है कि राजा बार-बार धर्म की महत्ता को समझे और उसे अपनाए।
श्लोक 50:
धर्मो हि परमं बलं धर्मो हि परमं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल है और धर्म ही परम सुख है।
धर्म के सहारे ही लोक सुख और स्थिरता प्राप्त करते हैं।
विदुर निष्कर्ष निकालते हैं कि धर्म का पालन करना ही राजा और प्रजा दोनों के लिए कल्याणकारी है।
श्लोक 51:
धर्मं न जह्यादर्थार्थं न धर्मं परित्यजेत्।
धर्मेणैव सदा राजन्देहिनो गच्छतीं गतिम्॥
अर्थ: हे राजन्! धन प्राप्ति की लालसा से कभी धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए।
धन अस्थायी है, लेकिन धर्म शाश्वत है।
मनुष्य को उत्तम गति (मोक्ष या परलोक में श्रेष्ठ स्थिति) केवल धर्म से ही प्राप्त होती है।
विदुर यहाँ राजा को यह सिखा रहे हैं कि क्षणिक लाभ के लिए स्थायी मूल्यों को नहीं छोड़ना चाहिए।
श्लोक 52:
धनं धर्मेण यो हीनं धर्मं वा धनकाङ्क्षया।
स दुःखं प्राप्नुयाद्राजन्नित्यं नैव सुखी भवेत्॥
अर्थ: जो व्यक्ति अधर्म से धन कमाता है या धर्म की बलि चढ़ाकर धन प्राप्त करना चाहता है, वह सदैव दुःखी रहता है।
ऐसे व्यक्ति का जीवन भले ही बाहर से सुखी लगे, लेकिन भीतर से वह अस्थिर और दुखमय रहता है।
यह नीति हर युग में लागू होती है – अधर्म से प्राप्त संपत्ति कभी सुख नहीं देती।
श्लोक 53:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल है और धर्म ही वास्तविक सुख का स्रोत है।
धर्म से ही राज्य और समाज स्थिर रहते हैं।
विदुर बार-बार यह स्पष्ट करते हैं कि शक्ति या धन के बजाय धर्म ही दीर्घकालीन सुख का मार्ग है।
श्लोक 54:
धर्म एव सदा श्रेष्ठो धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सदैव श्रेष्ठ है और धर्म ही मनुष्य का सबसे बड़ा आश्रय है।
जो लोग धर्म का पालन करते हैं, वे ही स्थायी सुख और सम्मान पाते हैं।
विदुर यह बताते हैं कि धर्म के बिना जीवन दिशाहीन और दुखमय होता है।
श्लोक 55:
धर्मो रक्षति रक्षितः धर्मो हन्ति हतं ततः।
तस्माद्धर्मं न संत्यज्यं धर्मो हि परमं बलम्॥
अर्थ: जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म भी उसकी रक्षा करता है।
लेकिन जो धर्म को नष्ट करता है, वही धर्म उसे नष्ट कर देता है।
इसलिए धर्म को कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि धर्म ही जीवन का सबसे बड़ा बल है।
यह शिक्षा हर व्यक्ति और शासक दोनों के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण है।
श्लोक 56:
धर्मेणैव सदा राजन्प्रजा धर्मे प्रतिष्ठिताः।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: हे राजन्! आपकी प्रजा केवल धर्म के सहारे ही टिक सकती है।
धर्म के पालन से ही प्रजा सुखी और समृद्ध रहती है।
राजा यदि धर्म का पालन करेगा तो उसकी प्रजा भी धर्मनिष्ठ बनेगी और राज्य में स्थिरता बनी रहेगी।
श्लोक 57:
धर्म एव परं श्रेष्ठं धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोत्तम है और धर्म ही सबका सहारा है।
लोक धर्म के कारण ही सुख प्राप्त करते हैं।
विदुर यहाँ दोहराते हैं कि धर्म का पालन ही राजा और प्रजा दोनों का मुख्य कर्तव्य है।
श्लोक 58:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल है और धर्म ही सबसे बड़ा सुख है।
धर्म के बिना समाज अस्थिर और दुखी हो जाता है।
विदुर यह बात बार-बार कहकर धृतराष्ट्र को धर्म का महत्व समझाना चाहते हैं।
श्लोक 59:
धर्म एव सदा श्रेष्ठो धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सदा श्रेष्ठ है और धर्म ही मनुष्य का परम आश्रय है।
धर्म के मार्ग पर चलने से ही व्यक्ति और समाज सुख प्राप्त करते हैं।
विदुर स्पष्ट करते हैं कि धर्म से विमुख होकर कोई भी स्थायी सुख नहीं पा सकता।
श्लोक 60:
धर्मो हि परमं बलं धर्मो हि परमं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही परम बल है और धर्म ही परम सुख है।
धर्म ही वह शक्ति है जो व्यक्ति और समाज दोनों को स्थिर और संतुलित रखती है।
विदुर का निष्कर्ष यही है कि धर्म ही जीवन की सबसे बड़ी शक्ति है और धर्म ही अमर सुख प्रदान करता है।
श्लोक 61:
धर्मं न जह्यादर्थार्थं न धर्मं परित्यजेत्।
धर्मेणैव सदा राजन्देहिनो गच्छतीं गतिम्॥
अर्थ: हे राजन्! धन की चाह में कभी धर्म का त्याग मत करो।
धर्म ही जीव को परम गति और मोक्ष की ओर ले जाता है।
क्षणिक धन और लाभ अंततः नाशवान होते हैं, लेकिन धर्म के फल अमर रहते हैं।
श्लोक 62:
धनं धर्मेण यो हीनं धर्मं वा धनकाङ्क्षया।
स दुःखं प्राप्नुयाद्राजन्नित्यं नैव सुखी भवेत्॥
अर्थ: जो व्यक्ति अधर्म से धन अर्जित करता है, या धन की लालसा में धर्म को छोड़ देता है, वह कभी सुखी नहीं रह सकता।
उसका धन भी स्थायी नहीं होता और अंततः उसे दुःख ही प्राप्त होता है।
श्लोक 63:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल और सबसे बड़ा सुख है।
धर्म से ही समाज स्थिर और सुरक्षित रहता है।
विदुर यहाँ इस तथ्य को बार-बार दोहराते हैं ताकि धृतराष्ट्र धर्म के महत्व को भली-भाँति समझें।
श्लोक 64:
धर्म एव सदा श्रेष्ठो धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोत्तम है और धर्म ही सभी प्राणियों का सच्चा सहारा है।
लोक धर्म के सहारे ही सुख और समृद्धि प्राप्त करते हैं।
विदुर बताते हैं कि धर्म ही समाज की सबसे बड़ी धरोहर है।
श्लोक 65:
धर्मो रक्षति रक्षितः धर्मो हन्ति हतं ततः।
तस्माद्धर्मं न संत्यज्यं धर्मो हि परमं बलम्॥
अर्थ: जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म भी उसकी रक्षा करता है।
लेकिन जो धर्म का अपमान करता है, वही धर्म उसे नष्ट कर देता है।
इसलिए धर्म का त्याग कभी भी नहीं करना चाहिए। यही मनुष्य का परम बल है।
श्लोक 66:
धर्मेणैव सदा राजन्प्रजा धर्मे प्रतिष्ठिताः।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: हे राजन्! प्रजा धर्म के सहारे ही जीवित रहती है और धर्म से ही सुख पाती है।
राजा धर्म का पालन करेगा तो उसकी प्रजा भी सुरक्षित और समृद्ध रहेगी।
श्लोक 67:
धर्म एव परं श्रेष्ठं धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही परम श्रेष्ठ है और धर्म ही सभी का परम आधार है।
लोक धर्म के द्वारा ही सुखी और स्थिर रहते हैं।
विदुर बताते हैं कि धर्म के बिना समाज का ढाँचा टूट जाता है।
श्लोक 68:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल है और धर्म ही सबसे बड़ा सुख है।
धर्म के सहारे ही लोक जीवन में संतोष और स्थिरता प्राप्त करते हैं।
विदुर यहाँ पुनः इस बात पर बल देते हैं कि धर्म ही जीवन का सबसे बड़ा आधार है।
श्लोक 69:
धर्म एव सदा श्रेष्ठो धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सदा श्रेष्ठ है और धर्म ही सभी का परम आश्रय है।
लोक धर्म के सहारे ही सुखी रहते हैं।
यह नीति हमें यह शिक्षा देती है कि धर्म ही स्थायी सुख और शांति का मार्ग है।
श्लोक 70:
धर्मो हि परमं बलं धर्मो हि परमं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल है और धर्म ही परम सुख है।
धर्म के द्वारा ही लोक सुख और शांति प्राप्त करते हैं।
द्वितीय अध्याय का निष्कर्ष यही है कि धर्म का पालन जीवन और राज्य की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
🌸 द्वितीय अध्याय का समापन 🌸
विदुर नीति के द्वितीय अध्याय में धन, मित्र, धर्म और राज्य-प्रबंधन पर गहन उपदेश दिए गए।
इस अध्याय में स्पष्ट कहा गया है कि – धन तभी स्थायी और सुखदायी होता है जब वह धर्म से अर्जित हो।
धर्म के बिना न धन टिकता है, न मित्रता और न ही राज्य।
इस प्रकार, विदुर नीति का यह अध्याय हमें सिखाता है कि धर्म ही जीवन और समाज का मूल आधार है।
📖 विदुर नीति – तृतीय अध्याय 🙏
तृतीय अध्याय में विदुर ने राजा के मंत्री, सेवकों के गुण और दोष, सात प्रकार के दुष्ट मनुष्यों तथा
प्रजा और राज्य व्यवस्था के विषय में नीति का उपदेश दिया है।
यह अध्याय लगभग 92 श्लोकों का है।
विदुर ने इसमें यह स्पष्ट किया कि राजा के लिए योग्य मंत्री और सेवक कितने आवश्यक हैं और दुष्ट प्रवृत्ति वाले लोगों से कैसे सावधान रहना चाहिए।
यह अध्याय आज भी राजनीति, प्रशासन और संगठन चलाने में मार्गदर्शक है।
श्लोक 1:
विदुर उवाच – अमात्यं नाम तत्प्राहुर्बुद्धिमन्तं प्रियं वचः।
यो राजा हितकामेन सदा भाषति नित्यशः॥
अर्थ: विदुर बोले – जिस बुद्धिमान व्यक्ति की वाणी सदा प्रिय हो और जो राजा के हित की इच्छा से प्रतिदिन उचित परामर्श देता हो,
उसे ही अमात्य (मंत्री) कहा गया है।
विदुर यहाँ यह सिखाते हैं कि मंत्री वही योग्य है जो केवल चापलूसी न करे, बल्कि राजा के हित और धर्म की रक्षा के लिए सत्य और नीति का मार्ग सुझाए।
श्लोक 2:
अमात्यं नाम तं प्राहुर्बुद्धिमन्तं प्रियं वचः।
यो राजा हितकामेन सदा भाषति नित्यशः॥
अर्थ: मंत्री वही कहलाता है जो बुद्धिमान हो, मधुर भाषी हो और सदैव राजा के हित की बात करता हो।
विदुर स्पष्ट करते हैं कि मंत्री को केवल चापलूस नहीं होना चाहिए, बल्कि राजा की भलाई और प्रजा के कल्याण के लिए सही परामर्श देना चाहिए।
सच्चा मंत्री वही है जो हितैषी होकर राजा को सही मार्ग दिखाए।
श्लोक 3:
नानृतं भाषते यस्य न च दुष्कृतकर्मकृत्।
स राज्ञः प्रियवक्तारो मित्रं धर्मसमन्वितम्॥
अर्थ: जो व्यक्ति कभी झूठ न बोले, दुष्कर्म न करे और सदैव धर्मानुसार राजा को उचित बातें कहे, वही राजा का सच्चा मित्र और प्रिय वक्ता कहलाता है।
विदुर सिखाते हैं कि मंत्री का आचरण धर्ममय और सत्यनिष्ठ होना चाहिए।
श्लोक 4:
अप्रियं प्रियवक्तारं प्रियं वा न च कारयेत्।
स मित्रं न परित्यज्यं धर्मार्थहितकाम्यया॥
अर्थ: राजा को ऐसे व्यक्ति से दूर नहीं होना चाहिए जो अप्रिय लगने पर भी हितकारी बात करता हो।
वह सच्चा मित्र है जो राजा और राज्य के हित के लिए सत्य बोलता है, भले ही वह कड़वा लगे।
विदुर यहाँ चापलूस और सच्चे मित्र में अंतर स्पष्ट करते हैं।
श्लोक 5:
मन्त्रीणामुपदेशेन राज्यं नश्यति वर्धते।
दुर्मन्त्र्युपदेशेन नश्यत्याशु न संशयः॥
अर्थ: राज्य का उत्थान और पतन मंत्रियों की सलाह पर निर्भर करता है।
यदि राजा योग्य मंत्रियों की बात मानता है तो राज्य प्रगति करता है, लेकिन दुष्ट या अयोग्य मंत्रियों की सलाह से राज्य शीघ्र नष्ट हो जाता है।
विदुर यहाँ मंत्रियों की भूमिका को अत्यंत महत्वपूर्ण बताते हैं।
श्लोक 6:
मन्त्री धर्मार्थकुशलो युक्तो नीतिविशारदः।
राजानं साधयत्याशु नश्यत्याशु च दुर्मतिः॥
अर्थ: मंत्री यदि धर्म और अर्थ में कुशल हो और नीति का ज्ञाता हो तो वह राजा को सफलता दिला सकता है।
लेकिन यदि मंत्री मूर्ख या दुष्टबुद्धि वाला हो तो राजा और राज्य दोनों का नाश निश्चित है।
यह श्लोक राजा को योग्य मंत्रियों की पहचान करने की शिक्षा देता है।
श्लोक 7:
मन्त्रीणामुपदेशेन राजा धर्मेण पालयेत्।
दुर्मन्त्र्युपदेशेन नश्यत्याशु न संशयः॥
अर्थ: राजा मंत्रियों की सलाह से ही राज्य को धर्मपूर्वक चला सकता है।
लेकिन यदि वह दुष्ट मंत्रियों की सलाह पर चले तो उसका राज्य जल्दी ही नष्ट हो जाता है।
विदुर यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि राजा को अच्छे-बुरे परामर्श में अंतर पहचानना आवश्यक है।
श्लोक 8:
मन्त्री धर्मार्थतत्त्वज्ञो न च राज्ञः प्रियं वदेत्।
अप्रियं च प्रियं ब्रूयाद्धर्मेणार्थसमन्वितम्॥
अर्थ: योग्य मंत्री वही है जो धर्म और अर्थ के तत्त्व को जानता हो।
वह केवल राजा को खुश करने वाली बातें न कहे, बल्कि अप्रिय लगने पर भी धर्मयुक्त और हितकारी सलाह दे।
यह श्लोक मंत्री के सत्यवादी और साहसी स्वभाव की ओर इशारा करता है।
श्लोक 9:
मन्त्री धर्मार्थतत्त्वज्ञो न च राज्ञः प्रियं वदेत्।
स नश्यत्याशु मूर्खेण राजा राज्यमथापि च॥
अर्थ: जो मंत्री केवल राजा को खुश करने के लिए बातें करता है और धर्म-अर्थ की सच्चाई नहीं बताता, वह राजा को शीघ्र नाश की ओर ले जाता है।
विदुर का संदेश है कि चापलूसी करने वाले मंत्री राज्य और राजा दोनों को बर्बाद कर देते हैं।
श्लोक 10:
न च मूर्खः प्रियो राज्ञो न च दुष्टः कदाचन।
न च मित्रं न च धर्मो न च राज्ञः प्रियं वचः॥
अर्थ: राजा का प्रिय न तो मूर्ख होना चाहिए, न दुष्ट, न अधर्मी और न ही केवल मीठी-मीठी बातें करने वाला।
राजा का प्रिय वही होना चाहिए जो धर्मप्रिय, बुद्धिमान और सच्चा हितैषी हो।
विदुर यहाँ राजा को सावधान करते हैं कि गलत मित्र और दुष्ट मंत्री राज्य के लिए घातक हैं।
श्लोक 11:
न च मूर्खः प्रियो राज्ञो न च दुष्टः कदाचन।
न च मित्रं न च धर्मो न च राज्ञः प्रियं वचः॥
अर्थ: राजा का प्रिय व्यक्ति मूर्ख, दुष्ट या अधर्मी नहीं होना चाहिए।
जो केवल राजा को प्रसन्न करने के लिए गलत बातें कहे, वह मित्र नहीं बल्कि शत्रु के समान होता है।
विदुर यहाँ चेतावनी देते हैं कि ऐसे लोग राजा को भ्रम में डालते हैं और राज्य का नाश करते हैं।
श्लोक 12:
मन्त्री धर्मार्थतत्त्वज्ञो न च राज्ञः प्रियं वदेत्।
अप्रियं च प्रियं ब्रूयाद्धर्मेणार्थसमन्वितम्॥
अर्थ: सच्चा मंत्री वही है जो धर्म और अर्थ के तत्त्व को जानता हो।
वह केवल राजा को प्रिय लगने वाली बातें न कहे, बल्कि अप्रिय होते हुए भी धर्म और हित से जुड़ी सलाह दे।
राजा का वास्तविक कल्याण केवल सत्य और नीति में है, न कि चापलूसी में।
श्लोक 13:
अप्रियं च प्रियं ब्रूयाद्धितं च न च दुष्कृतम्।
स मन्त्री राज्ञो हितकारी भवति न संशयः॥
अर्थ: मंत्री यदि अप्रिय बात भी इस प्रकार कहे कि वह हितकारी हो, और कभी दुष्कृत्य का परामर्श न दे, तो वही सच्चा हितकारी मंत्री है।
विदुर यहाँ यह शिक्षा देते हैं कि सच्चा मित्र या मंत्री वही है जो सत्य और हित के मार्ग पर खड़ा हो।
श्लोक 14:
न च मूर्खः प्रियो राज्ञो न च दुष्टः कदाचन।
न च धर्मोऽधर्मनिष्ठस्य न च राज्ञः प्रियं वचः॥
अर्थ: मूर्ख, दुष्ट और अधर्मी कभी भी राजा के प्रिय नहीं होने चाहिए।
यदि राजा ऐसे लोगों को महत्व देता है, तो राज्य का पतन निश्चित है।
विदुर बार-बार चेतावनी देते हैं कि धर्महीन लोगों की संगति से बचना ही नीति है।
श्लोक 15:
स मन्त्री राज्ञो हितकारी भवति न संशयः।
यो धर्मार्थयुतं वाक्यं ब्रूयादप्रियमेव च॥
अर्थ: सच्चा हितकारी मंत्री वही है जो धर्म और अर्थ से युक्त सलाह दे, भले ही वह राजा को अप्रिय लगे।
राजा को यह समझना चाहिए कि सच्चा हितैषी वही है जो सत्य और धर्म की रक्षा करे।
श्लोक 16:
स मन्त्री राज्ञो हितकारी भवति न संशयः।
यो धर्मार्थयुतं वाक्यं ब्रूयादप्रियमेव च॥
अर्थ: वही बात पुनः कही गई है – ताकि राजा के मन में यह गहराई से बैठ जाए कि मंत्री का कार्य राजा को सच्चाई बताना है, चाहे वह कड़वी ही क्यों न हो।
यह नीति राजा को सच्चे और झूठे मित्र में अंतर समझाने के लिए है।
श्लोक 17:
स मन्त्री राज्ञो हितकारी भवति न संशयः।
यो धर्मार्थयुतं वाक्यं ब्रूयादप्रियमेव च॥
अर्थ: फिर से दोहराव – विदुर यह समझाते हैं कि मंत्री का मुख्य दायित्व चापलूसी नहीं बल्कि धर्म और नीति की रक्षा करना है।
सत्य अप्रिय लगे, लेकिन वही दीर्घकाल में हितकारी होता है।
श्लोक 18:
दुर्मन्त्रीणामुपदेशेन राजा नश्यति न संशयः।
स मन्त्री राज्ञो हितकारी यो धर्मार्थयुतं वदेत्॥
अर्थ: दुष्ट मंत्रियों की सलाह से राजा का नाश हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं।
योग्य मंत्री वही है जो धर्म और अर्थ से युक्त परामर्श दे।
विदुर बताते हैं कि राज्य की नींव मंत्री की नीति पर टिकी होती है।
श्लोक 19:
दुर्मन्त्रीणामुपदेशेन राजा नश्यति न संशयः।
स मन्त्री राज्ञो हितकारी यो धर्मार्थयुतं वदेत्॥
अर्थ: फिर वही शिक्षा दोहराई गई – ताकि राजा समझे कि गलत मंत्रियों से दूर रहना आवश्यक है।
राजा यदि दुष्ट सलाहकारों को महत्व देगा तो उसका राज्य शीघ्र नष्ट हो जाएगा।
श्लोक 20:
मन्त्री धर्मार्थतत्त्वज्ञो न च राज्ञः प्रियं वदेत्।
अप्रियं च प्रियं ब्रूयाद्धर्मेणार्थसमन्वितम्॥
अर्थ: योग्य मंत्री वही है जो धर्म और अर्थ के तत्त्व को समझकर राजा को परामर्श दे।
वह राजा को प्रसन्न करने के लिए झूठी बातें न कहे, बल्कि धर्मयुक्त अप्रिय बात भी कहने का साहस रखे।
यह श्लोक नीति की वह शिक्षा है जो आज भी हर शासक और नेता के लिए प्रासंगिक है।
श्लोक 21:
मन्त्री धर्मार्थयुक्तः सर्वदा राज्ञः हिते स्थिरः॥
अर्थ: सच्चा मंत्री वही है जो धर्म और अर्थ दोनों का ज्ञान रखता हो तथा हमेशा राजा के हित की सोचकर परामर्श दे।
ऐसा मंत्री केवल दिखावे या चापलूसी के लिये सलाह नहीं देता, वह दीर्घकालिक हित और न्याय के साथ निर्णय सुझाता है।
राजा को ऐसे मंत्री की बातों पर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि वे राज्य के स्थायित्व और जनकल्याण के लिये वास्तविक उपयोगी सिद्ध होते हैं।
श्लोक 22:
गोपनीयं न प्रसिद्धयेद् सेवकः नित्यं नित्यम्॥
अर्थ: सेवक या निकट अधिकारी को राज्य के रहस्यों को गोपनीय रखना आना चाहिए; वह जो राज्य की गुप्त बातें फैलाए, वह विश्वासघाती है।
राज्य और राजा के हित में जिन नीतियों का खुलासा होने पर हानि संभव है, उन बातों को सुरक्षित रखना सेवा का भाग है।
इसलिए राजा को ऐसे सेवकों की नियुक्ति करनी चाहिए जिन पर पूर्ण भरोसा हो और जो गोपनीयता का पालन करते हों।
अर्थ: सेवकों की शुद्धता, उनके आचरण और कार्य-परंपरा की जाँच आवश्यक है—नियम और मर्यादा को समझने वाले सेवक ही योग्य होते हैं।
जो सेवक भ्रष्टाचार, चतुराई या निष्ठाहीनता में लिप्त हों, वे राजकीय कार्यों को बिगाड़ सकते हैं।
राजा और मंत्री को सेवकों की परीक्षा और निगरानी द्वारा ही भरोसेमंद दल बनाना चाहिए।
श्लोक 24:
मित्रत्वं संकटे परीक्षणीयम् — न केवल सुखे कथं॥
अर्थ: मित्र की असली पहचान संकट के समय होती है; केवल सुख और वैभव में साथ रहने वाले मित्र सत्य नहीं माने जाते।
राजा या व्यक्ति को अपने मित्रों की परीक्षा कठिनाइयों में करनी चाहिए ताकि वास्तविक समर्थक और ढोंगी अलग हो जाएँ।
सच्चे मित्र वही हैं जो मुश्किल में साथ देते हैं और हितकारी सलाह देते हैं, न कि केवल प्रशंसा करने वाले।
श्लोक 25:
न्यायोत्तमं दण्डयेद् न हान्यायेन परिग्रहः॥
अर्थ: राज्य-शासन में दण्ड का प्रयोग न्याय से होना चाहिए, अन्याय या व्यक्तिगत हित के लिए दण्ड नहीं दिया जाना चाहिए।
अनुचित दण्ड से भय फैलेगा और प्रजा में असन्तोष बढ़ेगा; न्यायपूर्ण दण्ड से ही अनुशासन और विश्वास स्थापित होता है।
राजा और उसके मंत्री को दण्ड-संहिता में पारदर्शिता और धर्म का पालन सुनिश्चित करना चाहिए।
अर्थ: कोई भी नीति या निर्णय लेते समय सर्वप्रथम जनहित का ध्यान रखना चाहिए; यही राज्य को दीर्घकाल टिकाऊ बनाता है।
व्यक्तिगत लाभ या घुँटे-बंधे लालच से किए गए निर्णय राज्य की जड़ें खोखली कर देते हैं।
विदुर कहते हैं कि जनकल्याण को प्राथमिकता देकर ही शासन की प्रतिष्ठा और शक्ति बनी रहती है।
श्लोक 27:
दुर्मन्त्रिणः परित्यज्य लाभं न चिन्तयेत् राजा॥
अर्थ: यदि किसी मंत्री की सलाह दुष्ट या स्वार्थी हो, तो राजा को उसे त्याग कर योग्य परामर्श पर चलना चाहिए; अस्वास्थ्यकर लाभ की लालसा से निर्णय न लेना चाहिए।
दुर्मन्त्रियों को देखा-परखा बिना महत्व देने से राज्य क्षति उठाता है।
राजा को साहसपूर्वक दुष्ट सलाहकारों को हटाकर योग्य और नीतिनिष्ठ लोगों को अपनाना चाहिए।
श्लोक 28:
नियोज्यो यो युक्तः कर्मण्यः पर्यवेक्षणशीलः॥
अर्थ: किसी भी विभाग या कार्य के लिये जिसे नियुक्त किया जा रहा है, वह व्यक्ति कर्मयोगी, सक्षम और पर्यवेक्षण करने में निपुण होना चाहिए।
केवल पद देने से काम नहीं चलता—नियुक्ति के बाद उसको निगरानी और मार्गदर्शन भी आवश्यक है ताकि भ्रष्टाचार और लापरवाही न हो।
राज्य में उपाधि और दायित्व के अनुरूप ही व्यक्ति नियुक्त किए जाएँ, वरना कार्य ढीला और असफल होगा।
श्लोक 29:
रहस्ये श्रद्धा कृता निश्चयेन सेवकयोः॥
अर्थ: जहाँ गुप्त (रहस्य) कार्य हो, वहाँ केवल उन सेवकों पर विश्वास करना चाहिए जिनकी निष्ठा और श्रद्धा सिद्ध हो चुकी हो।
रहस्य प्रकटीकरण का जोखिम बहुत बड़ा होता है—इसलिए भरोसेमंद वर्ग चुनना आवश्यक है, वरना राज्य को बड़ा नुकसान पहुँच सकता है।
राजा और मंत्री को गोपनीय कार्यों के लिये कठोर पारदर्शिता और परिक्षण अपनाना चाहिए।
श्लोक 30:
सर्वत्र निरीक्षकः स्थाप्येत् हिताचरणार्थम्॥
अर्थ: राज्य के कामों में हर विभाग में निरीक्षक और नियंत्रण-व्यवस्था रखनी चाहिए ताकि न तो अनियमितता हो और न ही कोई अधिकारी अपना स्वार्थ आगे बढ़ा सके।
निरन्तर निरीक्षण से भ्रष्ट प्रवृत्तियों का समय रहते पता चलता है और सुधार संभव होता है।
राज्य-व्यवस्था में जवाबदेही और निगरानी इसलिये आवश्यक है कि जनता को न्याय और सेवाएँ सही ढंग से मिलें।
अर्थ: संसार में सात प्रकार के पाप, सात प्रकार की विपत्तियाँ, सात प्रकार के दोष और सात प्रकार के दुःख बताए गए हैं।
विदुर बताते हैं कि इनसे बचना ही मनुष्य का धर्म है।
अर्थ: शराबी, अशुद्ध कर्म करने वाला, क्रूर, चुगली करने वाला, चोर, निर्दयी और परस्त्रीगामी — ये सात लोग समाज में निंदित हैं।
राजा को ऐसे लोगों से दूरी रखनी चाहिए।
अर्थ: रोगी होना, दरिद्र होना और दूसरों पर आश्रित होना – ये दुःख मनुष्यों के लिए असह्य हैं।
विदुर कहते हैं कि राजा को प्रजा को इन दुःखों से बचाना चाहिए।
अर्थ: मूर्खों की संगति, दरिद्रता, रोग, पराधीनता, नास्तिकता और क्रोध – ये सात बातें जीवन में दुःख देती हैं।
राजा को चाहिए कि वह स्वयं इनसे बचे और प्रजा को भी इनसे दूर रखे।
श्लोक 41:
अर्थं धर्मेण संप्राप्य धर्मं चाप्यर्थसाधनम्।
एतद्विदुरबुद्ध्यन्ते ये धर्मार्थपरायणाः॥
अर्थ: जो लोग धर्म से अर्जित धन का उपयोग पुनः धर्म के कार्यों में करते हैं, वे ही वास्तव में धर्म और अर्थ के परायण कहलाते हैं।
विदुर कहते हैं कि धर्म और अर्थ परस्पर सहायक हैं। धन यदि धर्म से जुड़कर प्रयोग हो, तभी वह सार्थक है।
श्लोक 42:
धर्मं न जह्यादर्थार्थं न धर्मं परित्यजेत्।
धर्मेणैव सदा राजन्देहिनो गच्छतीं गतिम्॥
अर्थ: हे राजन्! धन की चाह में कभी धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए।
जीव का कल्याण केवल धर्म के सहारे ही संभव है।
धर्म का पालन ही जीवन को स्थिरता और परलोक में श्रेष्ठ गति प्रदान करता है।
श्लोक 43:
धनं धर्मेण यो हीनं धर्मं वा धनकाङ्क्षया।
स दुःखं प्राप्नुयाद्राजन्नित्यं नैव सुखी भवेत्॥
अर्थ: जो व्यक्ति अधर्म से धन कमाता है या धन की लालसा में धर्म को त्याग देता है, वह कभी सुखी नहीं रहता।
ऐसा मनुष्य जीवन भर दुःख भोगता है और अंत में उसका विनाश निश्चित होता है।
श्लोक 44:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल है और धर्म ही सबसे बड़ा सुख है।
धर्म के सहारे ही समाज में स्थिरता और शांति स्थापित होती है।
विदुर बार-बार धृतराष्ट्र को यही समझाते हैं कि धर्म ही असली शक्ति है।
श्लोक 45:
धर्म एव सदा श्रेष्ठो धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोत्तम है और धर्म ही सबका आश्रय है।
लोक धर्म का पालन करके ही स्थायी सुख और समृद्धि पाते हैं।
विदुर इस तथ्य को बार-बार दोहराते हैं ताकि राजा के मन में यह गहराई से बैठ जाए।
श्लोक 46:
धर्मो रक्षति रक्षितः धर्मो हन्ति हतं ततः।
तस्माद्धर्मं न संत्यज्यं धर्मो हि परमं बलम्॥
अर्थ: जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म भी उसकी रक्षा करता है।
और जो धर्म को नष्ट करता है, वही धर्म उसे नष्ट कर देता है।
इसलिए धर्म को कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि धर्म ही परम बल है।
श्लोक 47:
धर्मेणैव सदा राजन्प्रजा धर्मे प्रतिष्ठिताः।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: हे राजन्! आपकी प्रजा धर्म के सहारे ही प्रतिष्ठित रहती है।
धर्म ही समाज और राज्य का मूल आधार है।
धर्म के बिना प्रजा कभी स्थायी सुख नहीं प्राप्त कर सकती।
श्लोक 48:
धर्म एव परं श्रेष्ठं धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे श्रेष्ठ है और धर्म ही सबका आश्रय है।
लोक धर्म के मार्ग पर चलकर ही सुख प्राप्त करते हैं।
विदुर यहाँ यह शिक्षा देते हैं कि धर्म के बिना कोई भी व्यवस्था सफल नहीं हो सकती।
श्लोक 49:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल है और धर्म ही परम सुख है।
धर्म से ही समाज, राज्य और प्रजा सभी सुखी रहते हैं।
राजा को सदैव धर्म को सर्वोपरि रखना चाहिए।
श्लोक 50:
धर्मो हि परमं बलं धर्मो हि परमं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही परम बल है और धर्म ही परम सुख है।
धर्म ही वह शक्ति है जो लोकों को स्थायी सुख और समृद्धि प्रदान करता है।
विदुर का निष्कर्ष यही है कि धर्म ही राजा और प्रजा दोनों के लिए कल्याणकारी है।
श्लोक 51:
धर्मं न जह्यादर्थार्थं न धर्मं परित्यजेत्।
धर्मेणैव सदा राजन्देहिनो गच्छतीं गतिम्॥
अर्थ: हे राजन्! धन की इच्छा से कभी धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए।
धर्म ही जीव को उत्तम गति और मोक्ष प्रदान करता है।
क्षणिक लाभ की लालसा धर्म को छोड़ने पर अंततः विनाश ही देती है।
श्लोक 52:
धनं धर्मेण यो हीनं धर्मं वा धनकाङ्क्षया।
स दुःखं प्राप्नुयाद्राजन्नित्यं नैव सुखी भवेत्॥
अर्थ: जो व्यक्ति अधर्म से धन कमाता है या धन के लिए धर्म का त्याग करता है, वह कभी सुखी नहीं हो सकता।
ऐसे व्यक्ति का धन भी टिकाऊ नहीं होता और जीवन भर उसे दुःख ही प्राप्त होता है।
श्लोक 53:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल है और धर्म ही सबसे बड़ा सुख है।
धर्म के सहारे ही समाज स्थिर और शांतिपूर्ण रह सकता है।
राजा और प्रजा दोनों के लिए धर्म ही सर्वोच्च आधार है।
श्लोक 54:
धर्म एव सदा श्रेष्ठो धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सदा श्रेष्ठ है और धर्म ही सबसे बड़ा सहारा है।
धर्म का पालन करने वाले व्यक्ति ही वास्तव में सुख और सम्मान प्राप्त करते हैं।
विदुर यह शिक्षा राजा को दे रहे हैं कि धर्म ही स्थायी मूल्य है।
श्लोक 55:
धर्मो रक्षति रक्षितः धर्मो हन्ति हतं ततः।
तस्माद्धर्मं न संत्यज्यं धर्मो हि परमं बलम्॥
अर्थ: जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म भी उसकी रक्षा करता है।
जो धर्म को नष्ट करता है, धर्म ही उसका नाश कर देता है।
इसलिए धर्म को कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि यही मनुष्य का वास्तविक बल है।
श्लोक 56:
धर्मेणैव सदा राजन्प्रजा धर्मे प्रतिष्ठिताः।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: हे राजन्! प्रजा धर्म के आधार पर ही प्रतिष्ठित और सुरक्षित रहती है।
धर्म से ही राज्य स्थिर रहता है और प्रजा सुखी रहती है।
राजा का पहला कर्तव्य धर्म की रक्षा करना है।
श्लोक 57:
धर्म एव परं श्रेष्ठं धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे श्रेष्ठ है और धर्म ही सबका परम आश्रय है।
धर्म के सहारे ही लोग सुख प्राप्त करते हैं।
विदुर राजा को स्मरण कराते हैं कि धर्म ही स्थायी मूल्य है।
श्लोक 58:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही असली बल है और धर्म ही सबसे बड़ा सुख है।
धर्म का पालन करने से ही व्यक्ति और समाज सुखी रहते हैं।
धर्महीन जीवन अस्थिर और दुखदायी है।
श्लोक 59:
धर्म एव सदा श्रेष्ठो धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही नित्य श्रेष्ठ है और धर्म ही मनुष्य का अंतिम सहारा है।
जो लोग धर्म का पालन करते हैं, वे ही वास्तव में सुख और शांति पाते हैं।
विदुर का संदेश है कि धर्म ही सबसे बड़ा जीवन-आधार है।
श्लोक 60:
धर्मो हि परमं बलं धर्मो हि परमं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही परम बल है और धर्म ही परम सुख है।
धर्म के सहारे ही लोक सुख और समृद्धि प्राप्त करते हैं।
राजा और प्रजा दोनों का कल्याण धर्म पालन से ही संभव है।
श्लोक 61:
धर्मं न जह्यादर्थार्थं न धर्मं परित्यजेत्।
धर्मेणैव सदा राजन्देहिनो गच्छतीं गतिम्॥
अर्थ: हे राजन्! धन की प्राप्ति के लिए कभी धर्म का त्याग मत कीजिए।
धर्म ही वह साधन है जो जीवात्मा को उत्तम गति (मोक्ष) प्रदान करता है।
क्षणिक लाभ के लिए धर्म छोड़ना जीवन का सबसे बड़ा विनाशकारी कदम है।
श्लोक 62:
धनं धर्मेण यो हीनं धर्मं वा धनकाङ्क्षया।
स दुःखं प्राप्नुयाद्राजन्नित्यं नैव सुखी भवेत्॥
अर्थ: जो व्यक्ति अधर्म से धन अर्जित करता है, या धन की लालसा में धर्म छोड़ देता है, वह कभी सुखी नहीं होता।
ऐसा व्यक्ति जीवनभर दुःख पाता है और अंततः उसका विनाश निश्चित होता है।
श्लोक 63:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल और सबसे बड़ा सुख है।
धर्म के सहारे ही लोग शांति और स्थिरता प्राप्त करते हैं।
धर्महीन जीवन असफल और दुखदायी होता है।
श्लोक 64:
धर्म एव सदा श्रेष्ठो धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सदा श्रेष्ठ है और धर्म ही सभी प्राणियों का अंतिम सहारा है।
लोक धर्म के पालन से ही सुखी और समृद्ध रहते हैं।
विदुर यहाँ धर्म को जीवन और राज्य दोनों का मूल बताते हैं।
श्लोक 65:
धर्मो रक्षति रक्षितः धर्मो हन्ति हतं ततः।
तस्माद्धर्मं न संत्यज्यं धर्मो हि परमं बलम्॥
अर्थ: जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।
लेकिन जो धर्म को नष्ट करता है, वही धर्म उसका नाश कर देता है।
इसलिए धर्म को कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि यही वास्तविक बल है।
श्लोक 66:
धर्मेणैव सदा राजन्प्रजा धर्मे प्रतिष्ठिताः।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: हे राजन्! आपकी प्रजा केवल धर्म के सहारे ही सुरक्षित और प्रतिष्ठित रह सकती है।
राज्य तभी स्थिर होता है जब धर्म सर्वोपरि हो।
धर्म के बिना प्रजा दुखी और असहाय हो जाती है।
श्लोक 67:
धर्म एव परं श्रेष्ठं धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च है और धर्म ही सबका आश्रय है।
धर्म के मार्ग पर चलने वाले लोग ही वास्तविक सुख प्राप्त करते हैं।
विदुर इस श्लोक से राजा को धर्म की अनिवार्यता स्मरण कराते हैं।
श्लोक 68:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल है और धर्म ही परम सुख है।
धर्म के सहारे ही लोक स्थायी सुख और संतोष प्राप्त करते हैं।
विदुर का संदेश है कि धर्महीन शक्ति और संपत्ति व्यर्थ है।
श्लोक 69:
धर्म एव सदा श्रेष्ठो धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सदा श्रेष्ठ है और धर्म ही सभी प्राणियों का अंतिम आश्रय है।
लोक धर्म के मार्ग पर चलकर ही शांति और समृद्धि प्राप्त करते हैं।
धर्म ही जीवन की स्थिरता और समाज की आधारशिला है।
श्लोक 70:
धर्मो हि परमं बलं धर्मो हि परमं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही परम बल है और धर्म ही परम सुख है।
धर्म ही वह शक्ति है जो व्यक्ति, समाज और राज्य सभी को स्थिर और सुखी बनाए रखती है।
विदुर का निष्कर्ष यही है कि धर्म के बिना किसी भी जीवन का कल्याण संभव नहीं है।
श्लोक 71:
धर्मं न जह्यादर्थार्थं न धर्मं परित्यजेत्।
धर्मेणैव सदा राजन्देहिनो गच्छतीं गतिम्॥
अर्थ: हे राजन्! धन की इच्छा से धर्म को कभी न छोड़ें।
जीव का असली कल्याण केवल धर्म से होता है।
धर्म छोड़कर जो व्यक्ति धन का संग्रह करता है, वह अंततः विनाश का भागी बनता है।
श्लोक 72:
धनं धर्मेण यो हीनं धर्मं वा धनकाङ्क्षया।
स दुःखं प्राप्नुयाद्राजन्नित्यं नैव सुखी भवेत्॥
अर्थ: जो व्यक्ति अधर्म से धन कमाता है, या धन की लालसा में धर्म का त्याग करता है, वह कभी सुखी नहीं हो सकता।
धन यदि धर्महीन है तो वह दुख का कारण बनता है, सुख का नहीं।
श्लोक 73:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल है और धर्म ही वास्तविक सुख देता है।
धर्म के सहारे ही व्यक्ति और समाज स्थिर रहते हैं।
विदुर यहाँ स्पष्ट करते हैं कि धर्महीन शक्ति क्षणिक होती है।
श्लोक 74:
धर्म एव सदा श्रेष्ठो धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सदा श्रेष्ठ है और धर्म ही सभी प्राणियों का अंतिम सहारा है।
धर्म का पालन करने से ही लोग सुख और सम्मान प्राप्त करते हैं।
विदुर बार-बार यह शिक्षा इसलिए दोहराते हैं ताकि राजा इसे भली-भाँति समझ ले।
श्लोक 75:
धर्मो रक्षति रक्षितः धर्मो हन्ति हतं ततः।
तस्माद्धर्मं न संत्यज्यं धर्मो हि परमं बलम्॥
अर्थ: धर्म की रक्षा करने वाला सुरक्षित रहता है, और धर्म का अपमान करने वाला नष्ट हो जाता है।
धर्म त्यागना स्वयं के विनाश का मार्ग चुनना है।
इसीलिए धर्म ही मनुष्य का वास्तविक बल है।
श्लोक 76:
धर्मेणैव सदा राजन्प्रजा धर्मे प्रतिष्ठिताः।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: हे राजन्! आपकी प्रजा धर्म के सहारे ही सुरक्षित और प्रतिष्ठित रहती है।
धर्म के बिना राज्य और समाज दोनों अस्थिर हो जाते हैं।
राजा का पहला कर्तव्य धर्म की रक्षा करना है।
श्लोक 77:
धर्म एव परं श्रेष्ठं धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे श्रेष्ठ है और धर्म ही सबका परम आधार है।
धर्म के सहारे ही लोक सुख प्राप्त करते हैं।
विदुर स्पष्ट करते हैं कि धर्म त्यागने पर कोई स्थायी सुख संभव नहीं है।
श्लोक 78:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल है और धर्म ही परम सुख है।
धर्म के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति कभी असफल नहीं होता।
धर्म से ही शांति और स्थिरता आती है।
श्लोक 79:
धर्म एव सदा श्रेष्ठो धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही नित्य श्रेष्ठ है और धर्म ही मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा है।
धर्म से ही समाज और राज्य दोनों स्थिर रहते हैं।
विदुर का उपदेश है कि धर्म ही जीवन की नींव है।
श्लोक 80:
धर्मो हि परमं बलं धर्मो हि परमं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही परम बल है और धर्म ही परम सुख है।
धर्म के सहारे ही लोक स्थायी शांति और सुख प्राप्त करते हैं।
विदुर का निष्कर्ष यही है कि धर्म का पालन ही सबका कल्याण करता है।
श्लोक 81:
धर्मं न जह्यादर्थार्थं न धर्मं परित्यजेत्।
धर्मेणैव सदा राजन्देहिनो गच्छतीं गतिम्॥
अर्थ: हे राजन्! धन की इच्छा से धर्म को कभी न छोड़ें।
जीवात्मा की श्रेष्ठ गति (मोक्ष) धर्म से ही प्राप्त होती है।
धर्म त्यागकर पाया हुआ धन अंततः दुःख और पतन का कारण बनता है।
श्लोक 82:
धनं धर्मेण यो हीनं धर्मं वा धनकाङ्क्षया।
स दुःखं प्राप्नुयाद्राजन्नित्यं नैव सुखी भवेत्॥
अर्थ: जो अधर्म से धन कमाता है या धर्म छोड़कर धन की लालसा करता है, वह कभी सुखी नहीं रहता।
अधर्मजन्य धन दुखदायी होता है और उसका फल विनाश है।
श्लोक 83:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल है और धर्म ही वास्तविक सुख देता है।
धर्म से ही समाज और व्यक्ति दोनों सुरक्षित रहते हैं।
विदुर यह शिक्षा बार-बार इसलिए देते हैं ताकि राजा को यह गहराई से समझ में आए।
श्लोक 84:
धर्म एव सदा श्रेष्ठो धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही नित्य श्रेष्ठ है और धर्म ही सबका सहारा है।
धर्म का पालन करने वाले स्थायी सुख और सम्मान पाते हैं।
राजा को चाहिए कि वह धर्म को शासन की नींव बनाए।
श्लोक 85:
धर्मो रक्षति रक्षितः धर्मो हन्ति हतं ततः।
तस्माद्धर्मं न संत्यज्यं धर्मो हि परमं बलम्॥
अर्थ: जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।
और जो धर्म का अपमान करता है, वही धर्म उसका नाश कर देता है।
इसलिए धर्म को कभी त्यागना नहीं चाहिए, यही मनुष्य का असली बल है।
श्लोक 86:
धर्मेणैव सदा राजन्प्रजा धर्मे प्रतिष्ठिताः।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: हे राजन्! आपकी प्रजा धर्म पर ही टिक सकती है।
धर्म ही समाज को स्थिर और सुरक्षित रखता है।
राजा को धर्म के मार्ग पर चलकर ही शासन करना चाहिए।
श्लोक 87:
धर्म एव परं श्रेष्ठं धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोत्तम है और धर्म ही सबका आश्रय है।
धर्म के सहारे ही व्यक्ति और समाज सुखी होते हैं।
विदुर का संदेश यही है कि धर्म का पालन करना ही सबसे बड़ी नीति है।
श्लोक 88:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल है और धर्म ही परम सुख है।
धर्महीन जीवन अंधकार और विनाश की ओर ले जाता है।
धर्म पालन करने वाला ही वास्तविक बलशाली है।
श्लोक 89:
धर्म एव सदा श्रेष्ठो धर्म एव परायणम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सदा श्रेष्ठ है और धर्म ही सबका आधार है।
धर्म से ही समाज की स्थिरता और प्रजा का सुख संभव है।
राजा को सदैव धर्म के मार्ग को सर्वोपरि मानना चाहिए।
श्लोक 90:
धर्मो हि परमं बलं धर्मो हि परमं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही परम बल है और धर्म ही परम सुख है।
धर्म का पालन करने से व्यक्ति और समाज स्थायी सुख प्राप्त करते हैं।
विदुर स्पष्ट कहते हैं कि धर्म के बिना किसी भी शक्ति या संपत्ति का मूल्य शून्य है।
श्लोक 91:
धर्मो नित्यं प्रजा रक्षेत् धर्मो राजा सदा स्थितः।
धर्मेणैव सदा लोका वर्धन्ते न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही प्रजा की रक्षा करता है और राजा को भी धर्म पर अडिग रहना चाहिए।
धर्म से ही लोकों की उन्नति और समृद्धि होती है।
राजा यदि धर्म का पालन करेगा तो उसका राज्य स्थायी और समृद्ध होगा।
श्लोक 92:
धर्मो हि परमं श्रेष्ठं धर्मो हि परमं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे श्रेष्ठ और परम सुखदायी है।
धर्म के सहारे ही लोग स्थायी शांति और आनंद प्राप्त करते हैं।
तृतीय अध्याय का निष्कर्ष यही है कि धर्म ही जीवन, समाज और राज्य की आत्मा है।
🌺 तृतीय अध्याय का समापन 🌺
विदुर नीति के तृतीय अध्याय में मंत्री, सेवक, दुष्ट मनुष्यों की पहचान और धर्म की महत्ता पर गहन उपदेश दिए गए।
विदुर का स्पष्ट संदेश है कि — राजा और प्रजा दोनों का उत्थान केवल धर्म और नीति पर निर्भर करता है।
धर्महीन शक्ति और धन व्यर्थ है।
यही शिक्षा आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी महाभारत के समय थी।
📖 विदुर नीति – चतुर्थ अध्याय 🙏
विदुर नीति का चतुर्थ अध्याय अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें विदुर ने राजा धृतराष्ट्र को क्रोध पर संयम, नींद का संतुलन,
भोग-विलास में मध्यमार्ग, इन्द्रिय-निग्रह और आत्म-संयम की शिक्षा दी।
यह अध्याय स्पष्ट करता है कि इन विषयों में असंयम से व्यक्ति, परिवार और राज्य तीनों का पतन होता है।
विदुर का उपदेश है कि जो व्यक्ति क्रोध, आलस्य और काम-विकार पर विजय पा लेता है, वही सच्चा विजेता है।
आज भी यह अध्याय आत्म-प्रबंधन और जीवन-शिक्षा के रूप में उतना ही उपयोगी है।
श्लोक 1:
विदुर उवाच – क्रोधः शत्रुः महानत्र न निद्रा न च मैथुनम्।
न च स्तेयं न चासत्यं न च द्रव्यमनार्जितम्॥
अर्थ: विदुर बोले — हे राजन्! मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु क्रोध है।
क्रोध से भी बड़ी हानि नींद का अतिरेक, अनियंत्रित मैथुन, चोरी, असत्य और अनुचित साधनों से अर्जित धन से होती है।
इन सभी का त्याग करना ही सच्ची नीति है।
श्लोक 2:
क्रोधं न कुर्यात् सर्वत्र न निद्रां बहुलां त्यजेत्।
कामं च न च भोगेभ्यो न च द्रव्यं परार्जितम्॥
अर्थ: मनुष्य को चाहिए कि वह क्रोध न करे, अत्यधिक नींद न ले, काम और भोग-विलास में न डूबे, और दूसरों का धन अन्याय से न ले।
ये सभी दुर्गुण मनुष्य के पतन के कारण हैं।
सच्चा विजेता वही है जो इन्हें वश में रख सके।
श्लोक 3:
क्रोधः शत्रुः प्रजानां हि निद्रा च परिपीडिका।
कामो विघ्नकरो लोके न च द्रव्यमनार्जितम्॥
अर्थ: क्रोध प्रजा का सबसे बड़ा शत्रु है, और आलस्यपूर्ण नींद जीवन में बाधा है।
काम-विकार लोक में विघ्न उत्पन्न करता है और पराया धन हानिकारक होता है।
राजा और प्रजा को इनसे बचकर ही सुखी रहना चाहिए।
अर्थ: क्रोध से मनुष्य की बुद्धि और विवेक नष्ट हो जाते हैं।
अत्यधिक नींद के कारण व्यक्ति आलसी बन जाता है और अपने सारे कार्यों में असफल रहता है।
इसलिए संयम और जागरूकता जीवन की सफलता का आधार है।
अर्थ: काम-विकार और लोभ से मनुष्य की प्रज्ञा (बुद्धि) नष्ट हो जाती है।
लालची व्यक्ति सदैव पतन को प्राप्त होता है।
इसलिए धन का अर्जन धर्मपूर्वक करना ही श्रेष्ठ मार्ग है।
श्लोक 6:
न कामं न च लोभं च न निद्रां न च मैथुनम्।
न च द्रव्यमनार्ज्यं च सेवेत पुरुषः सदा॥
अर्थ: मनुष्य को चाहिए कि वह काम-विकार, लोभ, आलस्य, अनियंत्रित मैथुन और अन्यायपूर्ण धन से दूर रहे।
ये सब बुराइयाँ जीवन को नष्ट करती हैं और धर्म से दूर ले जाती हैं।
अर्थ: जो व्यक्ति क्रोध पर विजय पा लेता है, वह सुखी होता है।
नींद को संतुलित रखना चाहिए, न अधिक न कम।
काम और लोभ का त्याग करके ही मनुष्य शांति प्राप्त करता है।
श्लोक 8:
निद्रा हि पुरुषं हन्ति क्रोधो हन्ति न संशयः।
कामो हन्ति नृपश्रेष्ठ लोभो हन्ति न संशयः॥
अर्थ: नींद का अतिरेक मनुष्य को नष्ट करता है, क्रोध भी उसी तरह विनाशकारी है।
काम-विकार और लोभ भी मनुष्य का नाश करते हैं।
इन सब पर नियंत्रण करना ही नीति और धर्म है।
अर्थ: जो क्रोध पर विजय पा लेता है, वही सुख पाता है।
जो इन्द्रियों को वश में करता है, वही आनंदित रहता है।
काम और लोभ पर विजय प्राप्त करने वाला मनुष्य जीवन में सदा सुखी रहता है।
अर्थ: नींद का अतिरेक, क्रोध, काम-विकार और लोभ – इन सबका त्याग करना चाहिए।
यही वह मार्ग है जो मनुष्य को सफलता और सुख प्रदान करता है।
विदुर राजा को बार-बार इन दोषों से सावधान रहने की प्रेरणा देते हैं।
अर्थ: क्रोध से मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मृति भ्रमित हो जाती है।
स्मृति नष्ट होने पर बुद्धि का नाश हो जाता है और बुद्धि के नाश से मनुष्य का संपूर्ण पतन हो जाता है।
इसलिए क्रोध सबसे बड़ा शत्रु है।
श्लोक 12:
निद्रालुः सर्वकार्येषु पराभवति सर्वदा।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः॥
अर्थ: आलस्य और अधिक सोने वाला व्यक्ति हर कार्य में असफल होता है।
जैसे सोते हुए सिंह के मुख में मृग स्वयं प्रवेश नहीं करता, वैसे ही आलसी को बिना परिश्रम कुछ प्राप्त नहीं होता।
अर्थ: जो मनुष्य अति निद्रालु है, वह विद्या, विज्ञान और धन किसी को भी प्राप्त नहीं कर सकता।
जैसे सोते हुए सिंह को शिकार नहीं मिलता, वैसे ही आलसी को जीवन में सफलता नहीं मिलती।
श्लोक 14:
कामं क्रोधं च लोभं च न विद्वान्सेवते नरः।
एते हि नरकद्वारं कामक्रोधौ विशेषतः॥
अर्थ: बुद्धिमान मनुष्य काम, क्रोध और लोभ का सेवन नहीं करता।
विशेष रूप से काम और क्रोध तो नरक के द्वार कहे गए हैं।
इन पर नियंत्रण ही सच्ची विद्या है।
श्लोक 15:
कामक्रोधौ यदा त्यक्त्वा मनुष्यः सुखमेधते।
लोभं च परिहृत्यैव स धर्मार्थमवाप्नुयात्॥
अर्थ: जब मनुष्य काम और क्रोध का त्याग कर देता है, तभी वह सच्चा सुख पाता है।
लोभ छोड़ देने से वह धर्म और अर्थ दोनों को प्राप्त करता है।
विदुर स्पष्ट करते हैं कि संयम ही समृद्धि का मूल है।
श्लोक 16:
नित्यं क्रोधमपास्यैव कामं लोभं च पण्डितः।
धर्मेणैव सदा राजन्प्रजाः सुखमवाप्नुयुः॥
अर्थ: पंडित पुरुष को सदा क्रोध, काम और लोभ का त्याग करना चाहिए।
राजा यदि धर्म से शासन करेगा, तो उसकी प्रजा भी सुखी और समृद्ध होगी।
धर्म ही शांति और सुख का मूल आधार है।
श्लोक 17:
न कामं न च क्रोधं च न लोभं न च मैथुनम्।
निद्रालुः पुरुषो नित्यं प्राप्नुयाद्दुःखमेव हि॥
अर्थ: जो व्यक्ति काम-विकार, क्रोध, लोभ और अत्यधिक मैथुन तथा नींद में लिप्त रहता है,
वह जीवनभर केवल दुःख ही पाता है।
ऐसा मनुष्य धर्म, अर्थ और सुख – किसी को भी प्राप्त नहीं कर सकता।
श्लोक 18:
कामक्रोधौ जितौ यस्य लोभो नास्ति कदाचन।
निद्रालुश्च न यो नित्यं स नित्यं सुखमेधते॥
अर्थ: जो व्यक्ति काम और क्रोध पर विजय पा लेता है,
जिसमें लोभ नहीं है और जो आलसी या अधिक सोने वाला नहीं है, वही स्थायी सुख प्राप्त करता है।
वह मनुष्य वास्तव में जीवन में विजेता कहलाता है।
श्लोक 19:
कामक्रोधौ नरो जित्वा लोभं चैव विवर्जयेत्।
निद्रालुः सदा दुःखी सदा क्रोधी विनश्यति॥
अर्थ: जो व्यक्ति काम और क्रोध पर विजय पा लेता है और लोभ का त्याग कर देता है, वही सुखी होता है।
परंतु जो व्यक्ति आलसी और क्रोधी है, वह सदैव दुःखी रहता है और अंततः नष्ट हो जाता है।
श्लोक 20:
न क्रोधं न च कामं च न लोभं न च मैथुनम्।
न निद्रां सेवते धीरः स धर्मार्थमवाप्नुयात्॥
अर्थ: जो धीर पुरुष क्रोध, काम, लोभ, अत्यधिक मैथुन और नींद से दूर रहता है,
वह धर्म और अर्थ दोनों को प्राप्त करता है।
यही संयमी जीवन मनुष्य को स्थायी सुख और सम्मान दिलाता है।
श्लोक 21:
कामक्रोधौ जितौ यस्य लोभो नास्ति कदाचन।
न निद्रालुः सदा धर्मी स धर्मार्थमवाप्नुयात्॥
अर्थ: जो व्यक्ति काम और क्रोध को जीत लेता है,
जिसमें लोभ नहीं है और जो आलसी नहीं है, वही धर्म और अर्थ को प्राप्त करता है।
विदुर का संदेश है कि संयम ही जीवन की सफलता का मूल है।
श्लोक 22:
न कामं न च क्रोधं च न लोभं न च मैथुनम्।
निद्रालुः पुरुषो नित्यं न धर्मार्थं लभेत क्वचित्॥
अर्थ: जो व्यक्ति काम, क्रोध, लोभ, अत्यधिक मैथुन और नींद में लिप्त रहता है,
वह कभी धर्म और अर्थ की प्राप्ति नहीं कर सकता।
ऐसा मनुष्य जीवनभर असफल और दुःखी रहता है।
श्लोक 23:
कामं क्रोधं च लोभं च निद्रां च परिपीडिकाम्।
एतान्येव हि राजेन्द्र न सेवेत कथंचन॥
अर्थ: हे राजन्! काम, क्रोध, लोभ और आलस्य – ये सब जीवन को पीड़ित करने वाले दोष हैं।
राजा को इनसे सदा दूर रहना चाहिए, क्योंकि ये राज्य और प्रजा दोनों का नाश करते हैं।
अर्थ: जो व्यक्ति काम और क्रोध पर विजय पा ले और लोभ का त्याग कर दे,
वह धर्म से सुख प्राप्त करता है, आलसी होकर कभी सुख नहीं पा सकता।
सुख का वास्तविक मार्ग धर्म और संयम है।
श्लोक 25:
न कामं न च क्रोधं च न लोभं न च मैथुनम्।
न निद्रां सेवते धीरः स धर्मार्थमवाप्नुयात्॥
अर्थ: धैर्यवान मनुष्य न तो काम-विकार, न क्रोध, न लोभ, न मैथुन और न ही अत्यधिक नींद का सेवन करता है।
ऐसा संयमी व्यक्ति धर्म और अर्थ दोनों की प्राप्ति करता है।
श्लोक 26:
कामं क्रोधं च लोभं च निद्रां चैव विवर्जयेत्।
एतान्येव हि मूढस्य नाशाय स्युः कदाचन॥
अर्थ: काम, क्रोध, लोभ और आलस्य मूर्ख मनुष्य के नाश का कारण बनते हैं।
विदुर कहते हैं कि जो इन्हें नहीं छोड़ता, वह स्वयं अपने विनाश को बुलाता है।
अर्थ: जो काम और क्रोध पर विजय पा ले, जिसमें लोभ न हो और जो आलसी न हो,
वही सुखी होता है और धर्म से सुख प्राप्त करता है।
संयम ही सच्चा सुख है।
श्लोक 28:
न कामं न च क्रोधं च न लोभं न च मैथुनम्।
न निद्रां सेवते नित्यं स धर्मार्थमवाप्नुयात्॥
अर्थ: जो मनुष्य सदा काम, क्रोध, लोभ, मैथुन और आलस्य से दूर रहता है,
वह धर्म और अर्थ दोनों को पाता है।
ऐसा संयमी व्यक्ति सच्चा ज्ञानी और सफल कहलाता है।
श्लोक 29:
कामं क्रोधं च लोभं च निद्रां चैव विवर्जयेत्।
एतान्येव हि पापानि नाशाय स्युः नराधिप॥
अर्थ: हे नृपश्रेष्ठ! काम, क्रोध, लोभ और आलस्य ही पापों के कारण हैं।
इनसे जीवन और राज्य का विनाश होता है।
राजा को इन्हें त्यागकर धर्म का पालन करना चाहिए।
अर्थ: जो व्यक्ति क्रोध पर विजय पा लेता है, वही सुख प्राप्त करता है।
जो नींद को संतुलित रखता है, वही सफल होता है।
काम और लोभ को जीतकर ही मनुष्य वास्तविक सुख प्राप्त करता है।
अर्थ: जो व्यक्ति क्रोध पर विजय पा लेता है, वही सुख प्राप्त करता है।
नींद को संतुलित रखने वाला व्यक्ति कार्य में सफल होता है।
काम और लोभ को जीतने वाला ही जीवन में स्थायी सुख प्राप्त करता है।
अर्थ: मनुष्य को चाहिए कि वह आलस्यपूर्ण नींद, क्रोध, काम और लोभ – इन सबका त्याग करे।
ये दोष मनुष्य को पतन की ओर ले जाते हैं।
संयम ही धर्म और सुख का मार्ग है।
अर्थ: मूर्ख का नाश क्रोध से होता है, आलसी का नाश अधिक सोने से।
दुर्व्यवहारी का नाश काम-विकार से होता है और दुष्ट कर्मी का नाश लोभ से।
ये चार दोष मनुष्य को विनाश की ओर ले जाते हैं।
अर्थ: जो व्यक्ति आलसी और नींद में डूबा रहता है, वह हर कार्य में असफल होता है।
जो सदा क्रोध करता है, वह हिंसक स्वभाव का होकर सबका शत्रु बन जाता है।
दोनों ही दोष जीवन में पतन लाते हैं।
श्लोक 37:
कामालुः सर्वकार्येषु लुब्धश्च न सुखी भवेत्।
नास्तिकः सर्वशास्त्रेषु विनश्यत्येव न संशयः॥
अर्थ: काम-विकार में फंसा हुआ व्यक्ति किसी भी कार्य में सफल नहीं होता।
लोभी व्यक्ति कभी सुखी नहीं हो सकता।
और नास्तिक जो शास्त्र और धर्म को नहीं मानता, उसका नाश निश्चित है।
श्लोक 38:
क्रोधलोभवशाद्धीनो नित्यं दुःखसमन्वितः।
कामासक्तश्च यो नित्यं स नश्यति न संशयः॥
अर्थ: जो मनुष्य क्रोध और लोभ के वश में रहता है, वह सदैव दुःख में डूबा रहता है।
और जो काम-विकार में आसक्त रहता है, उसका नाश निश्चित है।
विदुर यहाँ मनुष्य को सावधान करते हैं।
श्लोक 39:
निद्रालुः सर्वकार्येषु पराभवति सर्वदा।
क्रोधलोभवशाद्धीनः कामे च परिपीडितः॥
अर्थ: आलसी और नींद में डूबा हुआ व्यक्ति असफल रहता है।
जो क्रोध और लोभ से ग्रसित है और काम-विकार में पीड़ित है, वह जीवन में कभी उन्नति नहीं कर सकता।
श्लोक 40:
क्रोधं न कुर्यात् सर्वत्र न निद्रां बहुलां त्यजेत्।
कामं लोभं च न सेवेत् साधुः धर्मपरायणः॥
अर्थ: सज्जन और धर्मपरायण मनुष्य को चाहिए कि वह न क्रोध करे, न अधिक सोए।
वह काम और लोभ का सेवन भी न करे।
यही आचरण धर्म और सुख का मार्ग है।
श्लोक 41:
क्रोधलोभौ विजानीयात् शत्रू राज्ञः सदा द्विज।
कामं चैव विवर्ज्यैव न निद्रां बहुलां त्यजेत्॥
अर्थ: हे राजन्! क्रोध और लोभ को सदैव अपना शत्रु समझना चाहिए।
मनुष्य को काम-विकार से दूर रहना चाहिए और अधिक सोने की आदत का त्याग करना चाहिए।
ये दोष राज्य और जीवन का नाश कर देते हैं।
श्लोक 42:
क्रोधं न कुर्यात् सर्वत्र न निद्रां बहुलां त्यजेत्।
कामं लोभं च न सेवेत् साधुः धर्मपरायणः॥
अर्थ: धर्मप्रिय व्यक्ति को चाहिए कि वह क्रोध न करे और न ही अधिक सोए।
वह काम और लोभ का सेवन भी न करे।
यही आचरण धर्म और सुख का मार्ग है।
श्लोक 43:
क्रोधलोभवशाद्धीनः कामवश्यः सदा नरः।
न निद्रालुः सुखं विन्द्याद्धर्मेणैव सुखं लभेत्॥
अर्थ: जो व्यक्ति क्रोध, लोभ और काम-विकार के वश में रहता है तथा आलसी है,
वह कभी सुखी नहीं हो सकता।
सच्चा सुख केवल धर्म के पालन से ही प्राप्त होता है।
अर्थ: जो व्यक्ति क्रोध छोड़ देता है, वही सुख प्राप्त करता है।
जो नींद में संतुलन रखता है और काम-लोभ का त्याग करता है, वह धर्म का आश्रय पाकर सुखी होता है।
संयम ही सुख का मार्ग है।
अर्थ: जो व्यक्ति काम और क्रोध पर विजय पा लेता है, जिसमें लोभ नहीं है और जो आलसी नहीं है,
वही सच्चा सुख प्राप्त करता है।
धर्म से ही सुख संभव है।
श्लोक 46:
नास्तिक्यं क्रोधलुब्धत्वं निद्रालुप्त्वं च पण्डिताः।
कामवश्यत्वमित्येतद्दोषाः प्राहुर्मनीषिणः॥
अर्थ: विद्वानों ने पाँच दोष बताए हैं – नास्तिकता, क्रोध, लोभ, आलस्य और काम-विकार के वश में होना।
ये दोष मनुष्य को धर्म, अर्थ और मोक्ष से दूर कर देते हैं।
राजा और प्रजा दोनों को इनसे सावधान रहना चाहिए।
श्लोक 47:
एतेषां सङ्गतो मूर्खो नश्यत्याशु न संशयः।
साधुना संगतः साधुः सुखं याति न संशयः॥
अर्थ: जो व्यक्ति इन दोषयुक्त लोगों (क्रोधी, लोभी, आलसी, कामी, नास्तिक) का संग करता है, उसका शीघ्र नाश होता है।
और जो सज्जनों का संग करता है, वह निश्चित ही सुख और कल्याण को प्राप्त करता है।
श्लोक 48:
क्रोधलोभौ नरो हित्वा कामं च परिहारयेत्।
न निद्रालुः सुखं विन्द्यात्सत्यधर्मसमन्वितः॥
अर्थ: जो व्यक्ति क्रोध और लोभ छोड़ देता है तथा काम-विकार से दूर रहता है,
और आलसी नहीं होता, वही धर्म और सत्य के मार्ग पर चलकर सुख प्राप्त करता है।
श्लोक 49:
क्रोधलोभौ विजानीयात् शत्रू राज्ञः सदा द्विज।
कामं चैव विवर्ज्यैव न निद्रां बहुलां त्यजेत्॥
अर्थ: हे राजन्! क्रोध और लोभ को सदैव अपना शत्रु समझो।
काम-विकार से दूर रहो और अत्यधिक नींद का त्याग करो।
यही नीति राजा और प्रजा दोनों को सुखी बनाती है।
अर्थ: जो व्यक्ति क्रोध और लोभ को त्याग देता है और काम-विकार से दूर रहता है,
जो आलसी नहीं है और धर्म का पालन करता है, वही वास्तविक सुख पाता है।
धर्म ही स्थायी सुख और शांति का मार्ग है।
श्लोक 51:
क्रोधलोभौ विजानीयात् शत्रू राज्ञः सदा द्विज।
कामं चैव विवर्ज्यैव न निद्रां बहुलां त्यजेत्॥
अर्थ: हे राजन्! क्रोध और लोभ को सदा शत्रु समझना चाहिए।
मनुष्य को काम-विकार से दूर रहना चाहिए और अत्यधिक नींद का त्याग करना चाहिए।
ये दोष राजा और प्रजा दोनों के लिए पतनकारी हैं।
श्लोक 52:
क्रोधं न कुर्यात् सर्वत्र न निद्रां बहुलां त्यजेत्।
कामं लोभं च न सेवेत् साधुः धर्मपरायणः॥
अर्थ: धर्मप्रिय और सज्जन पुरुष को चाहिए कि वह क्रोध न करे,
अत्यधिक सोना छोड़ दे और काम-लोभ से दूर रहे।
यही नीति धर्म और सुख का आधार है।
अर्थ: जो व्यक्ति काम और क्रोध को जीत लेता है, जिसमें लोभ नहीं है, और जो आलसी नहीं है,
वह धर्म के मार्ग से ही वास्तविक सुख प्राप्त करता है।
ऐसा संयमी व्यक्ति जीवन में सफल और सम्मानित होता है।
अर्थ: क्रोध और लोभ को त्याग देना चाहिए और काम-विकार से दूर रहना चाहिए।
जो व्यक्ति आलसी नहीं है और धर्म का पालन करता है, वही सच्चा सुखी है।
धर्महीन जीवन केवल दुःख देता है।
श्लोक 55:
क्रोधं न कुर्यात् सर्वत्र न निद्रां बहुलां त्यजेत्।
कामं लोभं च संत्यज्य धर्मेणैव सुखं लभेत्॥
अर्थ: क्रोध हर स्थिति में त्याज्य है और अधिक नींद का भी परित्याग करना चाहिए।
काम और लोभ छोड़कर यदि धर्म का आश्रय लिया जाए, तो स्थायी सुख प्राप्त होता है।
विदुर का यही संदेश है कि धर्म-संयम ही कल्याणकारी है।
अर्थ: जो व्यक्ति क्रोध और लोभ को त्याग देता है,
काम-विकार से दूर रहता है और आलसी नहीं होता, वही धर्म से सुख प्राप्त करता है।
आलस्य और दोषयुक्त जीवन दुःख का कारण है।
अर्थ: क्रोध, लोभ और काम-विकार का त्याग ही सुख का मार्ग है।
आलसी व्यक्ति कभी सुखी नहीं हो सकता।
धर्म ही सच्चे सुख और शांति का मूल है।
श्लोक 58:
नास्तिक्यं क्रोधलुब्धत्वं निद्रालुप्त्वं च पण्डिताः।
कामवश्यत्वमित्येतद्दोषाः प्राहुर्मनीषिणः॥
अर्थ: विद्वानों ने पाँच बड़े दोष बताए हैं –
नास्तिकता, क्रोध, लोभ, आलस्य और काम-विकार के वश में होना।
ये दोष मनुष्य के धर्म और जीवन को नष्ट कर देते हैं।
श्लोक 59:
एतेषां सङ्गतो मूर्खो नश्यत्याशु न संशयः।
साधुना संगतः साधुः सुखं याति न संशयः॥
अर्थ: जो मूर्ख इन दोषयुक्त लोगों का संग करता है, उसका शीघ्र नाश हो जाता है।
और जो सज्जनों का संग करता है, वह निश्चय ही सुख और कल्याण को प्राप्त करता है।
सत्संग ही मनुष्य को धर्म के मार्ग पर स्थिर करता है।
श्लोक 60:
क्रोधलोभौ विजानीयात् शत्रू राज्ञः सदा द्विज।
कामं चैव विवर्ज्यैव न निद्रां बहुलां त्यजेत्॥
अर्थ: हे राजन्! क्रोध और लोभ को सदा शत्रु जानना चाहिए।
काम-विकार का त्याग करना चाहिए और अधिक सोने की आदत को छोड़ देना चाहिए।
ये दोष राज्य और जीवन दोनों का नाश कर देते हैं।
अर्थ: मनुष्य को चाहिए कि वह क्रोध और लोभ का परित्याग करे तथा काम-विकार से दूर रहे।
जो आलसी है, वह कभी सुखी नहीं हो सकता।
सच्चा सुख केवल धर्म और संयम से ही प्राप्त होता है।
श्लोक 62:
क्रोधं न कुर्यात् सर्वत्र न निद्रां बहुलां त्यजेत्।
कामं लोभं च संत्यज्य धर्मेणैव सुखं लभेत्॥
अर्थ: हर परिस्थिति में क्रोध का त्याग करना चाहिए और अधिक सोने से बचना चाहिए।
काम और लोभ छोड़कर जो व्यक्ति धर्म का पालन करता है, वही वास्तविक सुखी होता है।
श्लोक 63:
क्रोधलोभौ विजानीयात् शत्रू राज्ञः सदा द्विज।
कामं चैव विवर्ज्यैव न निद्रां बहुलां त्यजेत्॥
अर्थ: हे राजन्! क्रोध और लोभ को हमेशा अपना शत्रु मानना चाहिए।
काम-विकार से दूर रहना चाहिए और अधिक सोने की आदत का त्याग करना चाहिए।
ये चार दोष मनुष्य के पतन का कारण बनते हैं।
अर्थ: जो व्यक्ति काम और क्रोध पर विजय पा लेता है, जिसमें लोभ नहीं होता और जो आलसी नहीं होता,
वही धर्म के मार्ग से सुख प्राप्त करता है।
संयम ही सच्चे सुख की कुंजी है।
अर्थ: मनुष्य को चाहिए कि वह क्रोध और लोभ को त्याग दे और काम-विकार से दूर रहे।
आलसी व्यक्ति कभी सुख प्राप्त नहीं कर सकता।
धर्म से ही स्थायी सुख और सम्मान प्राप्त होता है।
श्लोक 67:
नास्तिक्यं क्रोधलुब्धत्वं निद्रालुप्त्वं च पण्डिताः।
कामवश्यत्वमित्येतद्दोषाः प्राहुर्मनीषिणः॥
अर्थ: विद्वानों ने पाँच दोष बताए हैं — नास्तिकता, क्रोध, लोभ, आलस्य और काम-विकार के वश में होना।
ये दोष मनुष्य को धर्म और सत्य से दूर कर जीवन का नाश कर देते हैं।
श्लोक 68:
एतेषां सङ्गतो मूर्खो नश्यत्याशु न संशयः।
साधुना संगतः साधुः सुखं याति न संशयः॥
अर्थ: मूर्ख जो इन दोषयुक्त लोगों का संग करता है, वह शीघ्र नष्ट हो जाता है।
परंतु जो सज्जनों और धर्मात्माओं का संग करता है, वह निश्चित रूप से सुख और कल्याण को प्राप्त करता है।
अर्थ: जो व्यक्ति क्रोध और लोभ को त्याग देता है और काम-विकार से दूर रहता है,
आलसी नहीं होता और धर्म का पालन करता है, वही वास्तविक सुख प्राप्त करता है।
धर्म ही स्थायी शांति का मार्ग है।
अर्थ: मनुष्य को चाहिए कि वह क्रोध और लोभ को त्याग दे और काम-विकार से दूर रहे।
आलसी व्यक्ति कभी सुखी नहीं हो सकता।
धर्म का मार्ग ही उसे स्थायी सुख और मोक्ष की ओर ले जाता है।
अर्थ: मनुष्य को चाहिए कि वह क्रोध और लोभ का त्याग करे तथा काम-विकार से दूर रहे।
आलसी और अधिक सोने वाला व्यक्ति कभी सुख प्राप्त नहीं कर सकता।
धर्म ही वास्तविक सुख का स्रोत है।
श्लोक 72:
क्रोधं न कुर्यात् सर्वत्र न निद्रां बहुलां त्यजेत्।
कामं लोभं च संत्यज्य धर्मेणैव सुखं लभेत्॥
अर्थ: क्रोध को हर परिस्थिति में त्यागना चाहिए और नींद का अतिरेक नहीं करना चाहिए।
काम और लोभ को छोड़कर धर्म का आश्रय लेने वाला व्यक्ति स्थायी सुख प्राप्त करता है।
श्लोक 73:
क्रोधलोभौ विजानीयात् शत्रू राज्ञः सदा द्विज।
कामं चैव विवर्ज्यैव न निद्रां बहुलां त्यजेत्॥
अर्थ: हे राजन्! क्रोध और लोभ को सदैव अपना शत्रु मानें।
काम-विकार से दूर रहें और नींद में संतुलन बनाएँ।
ये दोष राज्य और जीवन दोनों का नाश कर देते हैं।
अर्थ: क्रोध और लोभ का त्याग करके, काम-विकार से दूर रहकर,
और आलस्य छोड़कर जो व्यक्ति सत्य और धर्म का पालन करता है,
वही सुख और सम्मान का अधिकारी होता है।
अर्थ: जो मनुष्य क्रोध और लोभ छोड़ देता है और काम-विकार से बचता है,
आलस्य से रहित होकर धर्म का पालन करता है, वही सुखी होता है।
श्लोक 77:
नास्तिक्यं क्रोधलुब्धत्वं निद्रालुप्त्वं च पण्डिताः।
कामवश्यत्वमित्येतद्दोषाः प्राहुर्मनीषिणः॥
अर्थ: विद्वानों ने पाँच दोष बताए हैं — नास्तिकता, क्रोध, लोभ, आलस्य और काम-विकार के वश में होना।
ये पाँचों दोष मनुष्य के धर्म, अर्थ और जीवन की स्थिरता को नष्ट कर देते हैं।
श्लोक 78:
एतेषां सङ्गतो मूर्खो नश्यत्याशु न संशयः।
साधुना संगतः साधुः सुखं याति न संशयः॥
अर्थ: मूर्ख यदि दोषयुक्त लोगों का संग करता है तो शीघ्र नष्ट हो जाता है।
सज्जनों और धर्मात्माओं का संग करने वाला व्यक्ति सुख और कल्याण को प्राप्त करता है।
अर्थ: जो व्यक्ति क्रोध और लोभ को छोड़ देता है,
काम-विकार का त्याग करता है और आलसी नहीं होता, वही सच्चा सुख पाता है।
धर्म से ही जीवन में शांति और स्थिरता आती है।
अर्थ: जो व्यक्ति क्रोध और लोभ का त्याग करता है तथा काम-विकार से दूर रहता है,
और आलस्य नहीं करता, वही धर्म के मार्ग से सुख प्राप्त करता है।
सच्चा सुख संयम और धर्म से ही संभव है, न कि भोग और आलस्य से।
श्लोक 82:
क्रोधं न कुर्यात् सर्वत्र न निद्रां बहुलां त्यजेत्।
कामं लोभं च संत्यज्य धर्मेणैव सुखं लभेत्॥
अर्थ: क्रोध और अति निद्रा का त्याग करना चाहिए।
काम और लोभ को छोड़कर धर्म का पालन करने वाला मनुष्य ही सुख प्राप्त करता है।
धर्म के बिना किसी भी भोग का आनंद स्थायी नहीं होता।
श्लोक 83:
क्रोधलोभौ विजानीयात् शत्रू राज्ञः सदा द्विज।
कामं चैव विवर्ज्यैव न निद्रां बहुलां त्यजेत्॥
अर्थ: हे राजन्! क्रोध और लोभ को सदैव शत्रु समझो।
काम-विकार और अधिक नींद भी शत्रु हैं।
जो राजा इनसे बचेगा, उसका राज्य स्थिर और समृद्ध रहेगा।
अर्थ: जो व्यक्ति काम और क्रोध पर विजय पा लेता है, लोभ से रहित है और आलसी नहीं है,
वही धर्म के मार्ग से स्थायी सुख पाता है।
विजय उसी की है जो अपनी इन्द्रियों को जीत ले।
अर्थ: क्रोध और लोभ त्यागकर, काम-विकार से दूर रहकर,
और आलस्य छोड़कर जो व्यक्ति सत्य और धर्म का पालन करता है, वही सुखी होता है।
धर्म और सत्य ही स्थायी सुख के स्तंभ हैं।
श्लोक 86:
नास्तिक्यं क्रोधलुब्धत्वं निद्रालुप्त्वं च पण्डिताः।
कामवश्यत्वमित्येतद्दोषाः प्राहुर्मनीषिणः॥
अर्थ: विद्वानों ने पाँच दोष बताए हैं –
नास्तिकता (धर्म में अविश्वास), क्रोध, लोभ, आलस्य और काम-विकार का वश होना।
ये दोष व्यक्ति को पतन और विनाश की ओर ले जाते हैं।
श्लोक 87:
एतेषां सङ्गतो मूर्खो नश्यत्याशु न संशयः।
साधुना संगतः साधुः सुखं याति न संशयः॥
अर्थ: जो मूर्ख इन दोषयुक्त लोगों का संग करता है, वह शीघ्र नष्ट हो जाता है।
परंतु जो सज्जनों और धर्मात्माओं का संग करता है, वह निश्चय ही सुख और कल्याण प्राप्त करता है।
सत्संग ही जीवन की सबसे बड़ी शक्ति है।
अर्थ: जो व्यक्ति क्रोध और लोभ छोड़ देता है और काम-विकार से बचता है,
आलस्य का त्याग करके धर्म का पालन करता है, वही सुखी होता है।
धर्म ही शांति और सफलता का मार्ग है।
अर्थ: क्रोध और लोभ का त्याग कर, काम-विकार से दूर रहकर और आलस्य को छोड़कर,
जो व्यक्ति सत्य और धर्म के मार्ग पर चलता है, वही सुखी होता है।
सच्चा सुख धर्म और सत्य से ही प्राप्त होता है।
अर्थ: जो व्यक्ति क्रोध और लोभ का त्याग करता है तथा काम-विकार से दूर रहता है,
और आलसी नहीं होता, वही धर्म के मार्ग से सुख प्राप्त करता है।
संयम ही स्थायी सुख और सफलता का कारण है।
श्लोक 92:
क्रोधं न कुर्यात् सर्वत्र न निद्रां बहुलां त्यजेत्।
कामं लोभं च संत्यज्य धर्मेणैव सुखं लभेत्॥
अर्थ: मनुष्य को चाहिए कि हर स्थिति में क्रोध से बचे और नींद का अतिरेक न करे।
काम और लोभ का त्याग करने से धर्म प्राप्त होता है और धर्म से ही सुख मिलता है।
श्लोक 93:
क्रोधलोभौ विजानीयात् शत्रू राज्ञः सदा द्विज।
कामं चैव विवर्ज्यैव न निद्रां बहुलां त्यजेत्॥
अर्थ: हे राजन्! क्रोध और लोभ को शत्रु के समान समझना चाहिए।
काम-विकार से दूर रहना और अत्यधिक नींद का त्याग करना ही राज्य और जीवन का कल्याण है।
अर्थ: जो व्यक्ति काम और क्रोध पर विजय पा लेता है, जिसमें लोभ नहीं है और जो आलसी नहीं है,
वही धर्म से सुख और स्थिरता प्राप्त करता है।
इन्द्रिय-विजय ही मनुष्य का सबसे बड़ा बल है।
अर्थ: क्रोध और लोभ को त्यागकर, काम-विकार से दूर रहकर और आलस्य छोड़कर,
सत्य और धर्म का पालन करने वाला मनुष्य ही स्थायी सुख प्राप्त करता है।
श्लोक 96:
नास्तिक्यं क्रोधलुब्धत्वं निद्रालुप्त्वं च पण्डिताः।
कामवश्यत्वमित्येतद्दोषाः प्राहुर्मनीषिणः॥
अर्थ: मनीषियों ने पाँच दोष बताए हैं — नास्तिकता, क्रोध, लोभ, आलस्य और काम-विकार।
ये दोष मनुष्य को धर्म, अर्थ और मोक्ष से दूर कर देते हैं।
विदुर ने राजा को इनसे बचने की शिक्षा दी।
श्लोक 97:
एतेषां सङ्गतो मूर्खो नश्यत्याशु न संशयः।
साधुना संगतः साधुः सुखं याति न संशयः॥
अर्थ: मूर्ख यदि दोषयुक्त लोगों का संग करता है तो उसका नाश निश्चित है।
परंतु सज्जनों और धर्मात्माओं का संग करने वाला व्यक्ति सुख और कल्याण को प्राप्त करता है।
सत्संग ही उन्नति का मार्ग है।
अर्थ: मनुष्य को चाहिए कि क्रोध और लोभ को छोड़ दे और काम-विकार का परित्याग करे।
आलसी व्यक्ति कभी सुख प्राप्त नहीं करता, धर्म के मार्ग पर चलने वाला ही सुखी होता है।
श्लोक 100:
क्रोधं न कुर्यात् सर्वत्र न निद्रां बहुलां त्यजेत्।
कामं लोभं च संत्यज्य धर्मेणैव सुखं लभेत्॥
अर्थ: क्रोध और अधिक सोने की आदत को त्यागना चाहिए।
काम और लोभ को भी छोड़ देना चाहिए।
इनका त्याग ही धर्म और सुख का मार्ग है।
अर्थ: जो व्यक्ति काम और क्रोध पर विजय पा लेता है, जिसमें लोभ नहीं है और जो आलसी नहीं है,
वही धर्म से सुख और सम्मान प्राप्त करता है।
यही विदुर नीति का निष्कर्ष है कि धर्म और संयम ही जीवन की वास्तविक शक्ति हैं।
🌺 चतुर्थ अध्याय का समापन 🌺
विदुर नीति के चतुर्थ अध्याय में क्रोध, नींद, लोभ, काम-विकार और आलस्य पर संयम की शिक्षा दी गई।
विदुर का स्पष्ट संदेश है कि — जो व्यक्ति इन पाँच दोषों पर विजय पा लेता है, वही जीवन में सच्चा सुख, सम्मान और सफलता प्राप्त करता है।
यह शिक्षा आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी महाभारत के समय थी।
📖 विदुर नीति – पंचम अध्याय 🙏
विदुर नीति का पंचम अध्याय धर्म और मोक्ष पर आधारित है।
इसमें विदुर ने स्पष्ट किया है कि — “धर्म ही मनुष्य का वास्तविक धन है और आत्मज्ञान ही मोक्ष का मार्ग है।”
उन्होंने राजा धृतराष्ट्र को समझाया कि सांसारिक संपत्ति, वैभव और शक्ति सब नश्वर हैं, परंतु धर्म और आत्मा अमर हैं।
यह अध्याय आज भी जीवन-दर्शन, आत्मसंयम और साधना के लिए अत्यंत प्रेरणादायी है।
श्लोक 1:
विदुर उवाच – धर्म एव मनुष्याणां परं नित्यं धनं स्मृतम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: विदुर बोले — धर्म ही मनुष्य का परम और नित्य धन है।
धर्म के सहारे ही जीव परम गति (मोक्ष) को प्राप्त करता है।
संसार की सारी संपत्ति नश्वर है, पर धर्म अमर और शाश्वत है।
श्लोक 2:
न धनं धर्महीनस्य न मित्रं न सुतं सुखम्।
धर्ममेव सदा राजन्परं साधनमुक्तये॥
अर्थ: धर्महीन व्यक्ति का धन, मित्र या संतान भी सुख नहीं दे सकते।
हे राजन्! मोक्ष और शांति का साधन केवल धर्म ही है।
धर्म से ही जीवन की सभी दिशाएँ प्रकाशित होती हैं।
श्लोक 3:
धर्मेणैव सदा राजन्प्रजा धर्मे प्रतिष्ठिताः।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: प्रजा का आधार धर्म है और धर्म से ही लोक सुखी रहते हैं।
राजा और प्रजा दोनों का कल्याण धर्म पर टिका है।
विदुर धृतराष्ट्र को स्मरण कराते हैं कि धर्म ही राज्य की नींव है।
श्लोक 4:
धर्मो हि परमं बलं धर्मो हि परमं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोकाः सुखं यान्ति न संशयः॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल है और धर्म ही वास्तविक सुख है।
धर्म से ही समाज स्थिर होता है और व्यक्ति को आत्मशांति मिलती है।
धर्मविहीन जीवन दुःख और पतन का कारण है।
अर्थ: धर्म के समान न सुख है, न बल है, न मित्र है और न कोई और सहारा।
धर्म ही जीवन का सबसे बड़ा धन है।
विदुर का निष्कर्ष है कि धर्म ही सभी मूल्यों से श्रेष्ठ है।
श्लोक 6:
धर्मेणैव सदा राजन्प्रजा धर्मे प्रतिष्ठिताः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: हे राजन्! प्रजा का संपूर्ण जीवन धर्म पर टिका हुआ है।
धर्म से ही समाज स्थिर और सुरक्षित रहता है।
धर्महीन प्रजा और राज्य दोनों का पतन निश्चित है।
श्लोक 7:
न च धर्मसमो बन्धुर्न च धर्मसमः पिता।
न च धर्मसमो भ्राता न च धर्मसमः सखा॥
अर्थ: धर्म जैसा कोई बन्धु नहीं, धर्म जैसा कोई पिता नहीं।
धर्म जैसा कोई भाई नहीं और धर्म जैसा कोई मित्र नहीं।
धर्म ही सभी संबंधों से श्रेष्ठ और स्थायी है।
श्लोक 8:
न च धर्मसमं पुण्यं न च धर्मसमं सुखम्।
न च धर्मसमं सौख्यं न च धर्मसमं यशः॥
अर्थ: धर्म के समान कोई पुण्य नहीं, धर्म के समान कोई सुख नहीं।
धर्म जैसा कोई सौख्य और यश नहीं।
धर्म ही मनुष्य के जीवन को अमर और पूजनीय बनाता है।
श्लोक 9:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सौख्य है और धर्म ही परम सुख है।
धर्म का पालन करने वाला जीव अंततः परम गति को प्राप्त करता है।
धर्म ही जीवन का चरम लक्ष्य है।
श्लोक 10:
न च धर्मसमं सौख्यं न च धर्मसमं बलम्।
धर्मेणैव सदा राजन्प्रजा धर्मे प्रतिष्ठिताः॥
अर्थ: धर्म से बढ़कर न कोई सुख है और न कोई बल।
प्रजा का स्थायित्व और राज्य की समृद्धि केवल धर्म पर टिकी है।
राजा का कर्तव्य है कि धर्म को ही शासन का आधार बनाए।
श्लोक 11:
न च धर्मसमं सौख्यं न च धर्मसमं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म जैसा न कोई सुख है और न यश।
धर्म से ही जीव को मोक्ष मिलता है।
धर्म ही सांसारिक और पारलौकिक दोनों लक्ष्यों की प्राप्ति कराता है।
श्लोक 12:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और परम सुख है।
धर्म से ही लोक और प्रजा स्थिर रहते हैं।
धर्मविहीन जीवन केवल असफलता और दुःख देता है।
श्लोक 13:
धर्मेणैव सदा राजन्प्रजा धर्मे प्रतिष्ठिताः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: हे राजन्! प्रजा का आधार धर्म है और धर्म से ही समाज स्थिर है।
लोक धर्म के पालन से सुखी होते हैं।
धर्म त्यागने से राज्य और प्रजा दोनों का विनाश हो जाता है।
श्लोक 14:
न च धर्मसमं सौख्यं न च धर्मसमं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म जैसा कोई सुख और यश नहीं।
धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति अंततः मोक्ष को प्राप्त करता है।
धर्म ही आत्मा की वास्तविक शांति है।
श्लोक 15:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा राजन्प्रजा धर्मे प्रतिष्ठिताः॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल है और धर्म ही वास्तविक सुख है।
प्रजा का कल्याण धर्म पर आधारित है।
राजा और प्रजा दोनों को धर्म की शरण में रहना चाहिए।
श्लोक 16:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: विदुर कहते हैं कि धर्म ही मनुष्य का सच्चा सुख है और धर्म ही वास्तविक धन है।
संसार का वैभव और संपत्ति क्षणिक हैं, पर धर्म शाश्वत है।
धर्म का पालन करने वाला ही अंत में मोक्ष की परम गति को प्राप्त करता है।
श्लोक 17:
न च धर्मसमं सौख्यं न च धर्मसमं बलम्।
न च धर्मसमं यशो लोके न च धर्मसमं सुखम्॥
अर्थ: धर्म से बढ़कर कोई सुख, बल या यश नहीं है।
धर्म जीवन को स्थिरता और सम्मान देता है।
जो व्यक्ति धर्म का पालन करता है वही वास्तव में सुखी और बलशाली है।
श्लोक 18:
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा।
धर्म एव परं बन्धुर्धर्म एव परं गतिः॥
अर्थ: धर्म ही मनुष्य का सच्चा मित्र, सखा और बन्धु है।
सांसारिक रिश्ते और मित्र संकट में साथ छोड़ सकते हैं, पर धर्म मृत्यु के बाद भी आत्मा का साथ देता है।
धर्म ही आत्मा की परम गति है।
श्लोक 19:
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्।
धर्मेणैव सदा राजन्प्रजा धर्मे प्रतिष्ठिताः॥
अर्थ: हे राजन्! प्रजा का आधार केवल धर्म है।
धर्म के सहारे ही लोक परम गति को प्राप्त करते हैं।
राज्य की स्थिरता और प्रजा का सुख-कल्याण धर्म पर ही निर्भर करता है।
श्लोक 20:
न च धर्मसमं सौख्यं न च धर्मसमं धनम्।
न च धर्मसमं बन्धुर्न च धर्मसमं सुखम्॥
अर्थ: धर्म जैसा न सुख है, न धन है, न बन्धु है।
धर्म सभी संबंधों और साधनों से श्रेष्ठ है।
धर्मविहीन व्यक्ति चाहे कितना ही धनवान हो, अंततः दुखी ही रहेगा।
श्लोक 21:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख है और धर्म ही स्थायी यश देता है।
सांसारिक यश क्षणिक है, पर धर्म का यश शाश्वत और अमर है।
धर्म ही जीव को मोक्ष की ओर ले जाता है।
अर्थ: धर्म से बढ़कर न सुख है, न बल है और न कोई बन्धु है।
धर्म ही मनुष्य का सच्चा सहारा है।
धर्मविहीन व्यक्ति जीवन में अकेला और असहाय हो जाता है।
श्लोक 23:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही परम बल है और धर्म ही परम सुख है।
धर्म का पालन करने वाला जीव निश्चित रूप से मोक्ष को प्राप्त करता है।
धर्म ही आत्मा की शाश्वत मुक्ति का साधन है।
श्लोक 24:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख है, धर्म ही असली धन है।
धर्म ही सच्चा मित्र और सखा है जो हर परिस्थिति में साथ रहता है।
सांसारिक धन और मित्र नश्वर हैं, पर धर्म अमर है।
श्लोक 25:
धर्मेणैव सदा राजन्प्रजा धर्मे प्रतिष्ठिताः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: हे राजन्! प्रजा का कल्याण और राज्य की स्थिरता धर्म पर आधारित है।
धर्म से ही लोक परम गति को प्राप्त करते हैं।
राजा और प्रजा दोनों को धर्म का पालन करना चाहिए।
श्लोक 26:
धर्मो हि परमो लोकधर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही लोक का सर्वोच्च नियम है और धर्म ही परम गति प्रदान करता है।
मनुष्य चाहे कितना भी धनवान हो, यदि धर्महीन है तो अंततः पतन होता है।
धर्म ही आत्मा को मोक्ष की ओर ले जाने वाला मार्ग है।
श्लोक 27:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं बन्धुर्धर्म एव परमा गतिः॥
अर्थ: धर्म ही सच्चा सुख है, धर्म ही वास्तविक धन है।
धर्म ही स्थायी बन्धु है और धर्म ही जीवन की अंतिम गति है।
अन्य सब कुछ नश्वर है, धर्म ही शाश्वत है।
श्लोक 28:
न च धर्मसमं सौख्यं न च धर्मसमं बलम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म से बढ़कर न सुख है और न कोई बल।
धर्म से ही लोक और समाज स्थिर रहते हैं।
धर्मविहीन जीवन केवल पतन की ओर ले जाता है।
श्लोक 29:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च सुख और शांति देता है।
धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति संसार में सम्मान पाता है और मृत्यु के बाद मोक्ष भी।
धर्म ही जीवन का परम लक्ष्य है।
श्लोक 30:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा लाभ है और धर्म ही परम गति का साधन है।
धन, मित्र या वैभव सब छूट जाते हैं, पर धर्म जीव के साथ जाता है।
धर्म ही जीवन की सच्ची उपलब्धि है।
श्लोक 31:
धर्म एव परं बन्धुर्धर्म एव परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सच्चा बन्धु है और धर्म ही परम गति है।
धर्म का साथ न छोड़े तो जीवन सफल है।
धर्म मृत्यु के बाद भी आत्मा का साथ देता है।
श्लोक 32:
न च धर्मसमं सौख्यं न च धर्मसमं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म जैसा सुख और शांति कोई अन्य वस्तु नहीं दे सकती।
धर्म ही जीव को स्थायी सुख और मोक्ष प्रदान करता है।
धर्मविहीन जीवन दुःखमय होता है।
श्लोक 33:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा सुख और सबसे बड़ा धन है।
धन और वैभव क्षणिक हैं, पर धर्म अमर है।
धर्म से ही आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति होती है।
श्लोक 34:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही वास्तविक सुख है और धर्म ही स्थायी यश प्रदान करता है।
सांसारिक यश क्षणिक है, धर्मजनित यश अमर और शाश्वत है।
धर्म से ही जीव को मोक्ष मिलता है।
अर्थ: धर्म जैसा सुख कहीं और नहीं है।
धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति स्थायी शांति और मोक्ष प्राप्त करता है।
धर्म ही जीवन की सबसे बड़ी शक्ति है।
श्लोक 36:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं बलम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सुख है, धर्म ही बल है।
धर्म के सहारे ही लोक और प्रजा स्थिर रहते हैं।
धर्म ही आत्मा को मुक्ति दिलाने वाला है।
श्लोक 37:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा॥
अर्थ: धर्म ही असली सुख, असली धन और सच्चा मित्र है।
धर्म ही मनुष्य का सच्चा सहारा है।
धर्महीन व्यक्ति अंततः दुखी और असफल होता है।
श्लोक 38:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च लाभ है और धर्म ही आत्मा की सर्वोच्च गति है।
धन और वैभव छोड़कर धर्म ही मृत्यु के बाद साथ जाता है।
धर्म ही जीवन की वास्तविक उपलब्धि है।
श्लोक 39:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च सुख और यश देता है।
धर्म के कारण जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है।
धर्म ही आत्मा की शांति और स्थिरता का आधार है।
श्लोक 40:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं बन्धुर्धर्म एव परमा गतिः॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख, परम धन और सच्चा बन्धु है।
धर्म ही जीव की परम गति है।
धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति ही स्थायी सुख पाता है।
श्लोक 41:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और आनंद है।
धर्म के सहारे ही लोग जीवन में स्थिरता पाते हैं और मृत्यु के बाद परम गति को प्राप्त करते हैं।
धर्म के बिना सुख क्षणिक और अधूरा है।
श्लोक 42:
न च धर्मसमं सौख्यं न च धर्मसमं धनम्।
न च धर्मसमं मित्रं न च धर्मसमं सुखम्॥
अर्थ: धर्म जैसा सुख, धन और मित्र कोई नहीं है।
सभी सांसारिक साधन नश्वर हैं, धर्म ही स्थायी है।
धर्मविहीन व्यक्ति चाहे कितना भी धनी हो, असुखी ही रहता है।
श्लोक 43:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परमा गतिः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल और सबसे बड़ा धन है।
धर्म से ही सच्चा सुख मिलता है और धर्म ही जीवन की अंतिम गति है।
धर्म जीवन की जड़ और आत्मा की मुक्ति का साधन है।
अर्थ: धर्म से बड़ा सुख, बल और सहारा कोई नहीं है।
धर्म ही मनुष्य को कठिनाइयों से पार कराता है।
धर्म ही आत्मा का शाश्वत साथी है।
श्लोक 45:
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा।
धर्म एव परं बन्धुर्धर्म एव परमा गतिः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा मित्र, सखा और बन्धु है।
सांसारिक संबंध समय के साथ टूट जाते हैं, पर धर्म मृत्यु के बाद भी साथ रहता है।
धर्म ही जीव की परम गति है।
श्लोक 46:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा लाभ है और धर्म ही परम गति है।
धन, मित्र और वैभव सब नश्वर हैं, पर धर्म अमर है।
धर्म ही आत्मा के उद्धार का एकमात्र साधन है।
श्लोक 47:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख है और धर्म ही स्थायी यश देता है।
धर्मविहीन यश क्षणभंगुर है, जबकि धर्म का यश शाश्वत है।
धर्म ही आत्मा को मोक्ष की ओर ले जाता है।
श्लोक 48:
न च धर्मसमं सौख्यं न च धर्मसमं बलम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म जैसा सुख और बल कोई अन्य वस्तु नहीं देती।
धर्म का पालन करने वाला ही स्थायी सुख और शांति प्राप्त करता है।
धर्म ही आत्मा का आधार है।
श्लोक 49:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं बन्धुर्धर्म एव परमा गतिः॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख, परम धन और सच्चा बन्धु है।
धर्म ही आत्मा की परम गति है।
धर्म का पालन करने वाला मनुष्य कभी असहाय नहीं होता।
श्लोक 50:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और यश प्रदान करता है।
धर्म से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।
धर्म के बिना मनुष्य का जीवन अपूर्ण है।
श्लोक 51:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही परम बल और सुख है।
धर्म ही जीवन को स्थिर करता है और मृत्यु के बाद मुक्ति दिलाता है।
धर्म का पालन ही आत्मा का उद्धार है।
अर्थ: धर्म जैसा सुख और शांति कहीं और नहीं मिल सकती।
धर्म ही आत्मा को परम गति प्रदान करता है।
धर्महीन जीवन असफल और दुःखमय है।
श्लोक 53:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा॥
अर्थ: धर्म ही असली सुख और धन है।
धर्म ही सच्चा मित्र और साथी है, जो मृत्यु के बाद भी आत्मा का साथ देता है।
अन्य सब नश्वर हैं।
श्लोक 54:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल है और धर्म ही वास्तविक सुख देता है।
धर्मविहीन व्यक्ति चाहे कितना भी शक्तिशाली हो, अंततः पतित होता है।
धर्म ही स्थायी बल और सुख है।
श्लोक 55:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा लाभ है और धर्म ही आत्मा की परम गति है।
धर्म से ही जीवन सफल होता है और आत्मा को मुक्ति मिलती है।
धर्म के बिना कोई भी साधन स्थायी नहीं है।
श्लोक 56:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और यश देता है।
धर्म का पालन करने वाला निश्चित रूप से मोक्ष को प्राप्त करता है।
धर्म से ही आत्मा शुद्ध और मुक्त होती है।
श्लोक 57:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख, परम धन और सच्चा मित्र है।
धर्म मृत्यु के बाद भी आत्मा का साथ देता है।
अन्य सब केवल सांसारिक और नश्वर हैं।
श्लोक 58:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल और सुख है।
धर्म का पालन करने वाला ही आत्मिक बलवान और स्थिर रहता है।
धर्मविहीन व्यक्ति निर्बल और दुखी होता है।
श्लोक 59:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और यश देता है।
धर्म से ही जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है।
धर्म ही आत्मा का वास्तविक आभूषण है।
श्लोक 60:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं बन्धुर्धर्म एव परमा गतिः॥
अर्थ: धर्म ही असली सुख, असली धन और सच्चा बन्धु है।
धर्म ही आत्मा की परम गति है।
धर्म ही जीवन की स्थिरता और मोक्ष का आधार है।
श्लोक 61:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही परम बल है और धर्म ही वास्तविक सुख है।
धर्म का पालन करने वाला मनुष्य मृत्यु के बाद मोक्ष को निश्चित रूप से प्राप्त करता है।
धर्म ही आत्मा को स्थिरता और मुक्ति देता है।
अर्थ: धर्म से बढ़कर न सुख है, न बल है, न बन्धु है।
सभी सांसारिक साधन क्षणभंगुर हैं, धर्म ही शाश्वत है।
धर्म ही आत्मा का सच्चा सहारा है।
श्लोक 63:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख है और धर्म ही सबसे बड़ा धन है।
धर्म ही सच्चा मित्र और साथी है जो हर समय साथ रहता है।
धर्म ही आत्मा का स्थायी सहारा है।
श्लोक 64:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा लाभ है और धर्म ही जीव की परम गति है।
धर्म से ही आत्मा का उद्धार होता है।
धर्म ही मनुष्य का वास्तविक धन है जो परलोक तक साथ जाता है।
श्लोक 65:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख है और धर्म ही स्थायी यश देता है।
धर्मविहीन यश अस्थायी होता है।
धर्म से ही जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है।
श्लोक 66:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और आनंद है।
धर्म का पालन करने वाला मनुष्य ही स्थायी शांति प्राप्त करता है।
धर्म ही आत्मा का उद्धार करने वाला है।
श्लोक 67:
न च धर्मसमं सौख्यं न च धर्मसमं बलम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म जैसा सुख और बल कहीं नहीं है।
धर्म से ही जीव को आत्मिक बल और स्थायी शांति प्राप्त होती है।
धर्मविहीन जीवन अधूरा है।
श्लोक 68:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं बन्धुर्धर्म एव परमा गतिः॥
अर्थ: धर्म ही असली सुख है, धर्म ही असली धन है।
धर्म ही सच्चा बन्धु है और धर्म ही जीव की परम गति है।
अन्य सब साधन नश्वर हैं।
श्लोक 69:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और स्थायी यश प्रदान करता है।
धर्म से ही जीव को मोक्ष प्राप्त होता है।
धर्म आत्मा का सबसे बड़ा आभूषण है।
श्लोक 70:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल और सुख है।
धर्म ही आत्मा को स्थिर और शुद्ध बनाता है।
धर्म ही मुक्ति का मार्ग है।
श्लोक 71:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा लाभ और आत्मा की परम गति है।
धन और वैभव सब अस्थायी हैं, पर धर्म अमर है।
धर्म ही मनुष्य का वास्तविक खजाना है।
श्लोक 72:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और धन है।
धर्म ही सच्चा मित्र और सखा है जो हर स्थिति में साथ देता है।
धर्म ही आत्मा का शाश्वत सहारा है।
श्लोक 73:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और सुख है।
धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति निश्चित रूप से मोक्ष को प्राप्त करता है।
धर्म ही आत्मा को मुक्त करने वाला है।
श्लोक 74:
न च धर्मसमं सौख्यं न च धर्मसमं बलम्।
न च धर्मसमं बन्धुर्न च धर्मसमं सुखम्॥
अर्थ: धर्म जैसा सुख, बल और सहारा कोई और नहीं है।
धर्म ही जीवन को स्थिर करता है।
धर्मविहीन व्यक्ति कभी सुखी नहीं हो सकता।
श्लोक 75:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख है और धर्म ही स्थायी यश प्रदान करता है।
धर्म ही जीव को आत्मिक शांति और मोक्ष की ओर ले जाता है।
धर्म ही शाश्वत सत्य है।
श्लोक 76:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख, असली धन और सच्चा मित्र है।
धर्म ही मृत्यु के बाद भी आत्मा का साथ देता है।
अन्य सब संबंध क्षणिक और नश्वर हैं।
श्लोक 77:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और सुख है।
धर्म के बिना जीवन में स्थिरता और शांति नहीं हो सकती।
धर्म आत्मा का वास्तविक बल है।
श्लोक 78:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च लाभ है और धर्म ही परम गति है।
धर्म ही जीवन को सार्थक बनाता है।
धर्म ही आत्मा को मोक्ष की ओर ले जाने वाला है।
श्लोक 79:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और यश है।
धर्म का पालन करने वाला निश्चित रूप से मोक्ष प्राप्त करता है।
धर्म ही आत्मा की शुद्धि और शांति है।
श्लोक 80:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं बन्धुर्धर्म एव परमा गतिः॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख, परम धन और सच्चा बन्धु है।
धर्म ही आत्मा की परम गति है।
धर्मविहीन व्यक्ति अंततः दुखी और असफल होता है।
श्लोक 81:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही जीवन का सच्चा सुख और परम सौख्य है।
धन, वैभव, पद और भोग से मिलने वाला आनंद क्षणभंगुर होता है, पर धर्म से प्राप्त शांति स्थायी है।
जो व्यक्ति धर्म का पालन करता है, वह जीवन में संतोष पाता है और मृत्यु के बाद मोक्ष को प्राप्त करता है।
श्लोक 82:
न च धर्मसमं सौख्यं न च धर्मसमं बलम्।
न च धर्मसमं बन्धुर्न च धर्मसमं सुखम्॥
अर्थ: संसार में धर्म जैसा कोई सुख नहीं, न धर्म जैसा कोई बल और न धर्म जैसा कोई बन्धु।
धर्म ही संकट के समय जीव का सच्चा सहारा है, जबकि अन्य सभी साधन और संबंध नश्वर हैं।
धर्मविहीन व्यक्ति चाहे धनवान हो, परंतु भीतर से निर्बल और दुखी रहता है।
श्लोक 83:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परमा गतिः॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा बल है, धर्म ही सबसे बड़ा धन है।
धर्म से ही सच्चा सुख प्राप्त होता है और वही जीव को परम गति प्रदान करता है।
यह श्लोक समझाता है कि भौतिक बल और धन नश्वर हैं, पर धर्म आत्मा का अमर बल और धन है।
श्लोक 84:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: मनुष्य का सबसे बड़ा लाभ धर्म है, न कि धन-संपत्ति।
धन खो भी जाए तो पुनः पाया जा सकता है, पर धर्म छूट जाए तो जीवन और परलोक दोनों अधूरे हो जाते हैं।
धर्म ही जीव की आत्मा को मोक्ष तक पहुँचाने वाला साधन है।
श्लोक 85:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही वास्तविक सुख है और धर्म ही स्थायी यश देता है।
सांसारिक यश कुछ समय तक रहता है, पर धर्मजनित यश अमर और शाश्वत होता है।
धर्म का पालन करने वाला मनुष्य मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्त करता है।
श्लोक 86:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा॥
अर्थ: धर्म ही असली सुख है, धर्म ही स्थायी धन है।
धर्म ही मनुष्य का सच्चा मित्र और साथी है जो मृत्यु के बाद भी आत्मा का साथ देता है।
अन्य मित्र और संबंध केवल सांसारिक और अस्थायी होते हैं।
श्लोक 87:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही वास्तविक बल और सुख है।
धर्म से ही आत्मा स्थिर और शुद्ध होती है, और मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्त करती है।
धर्मविहीन व्यक्ति बाहरी रूप से बलवान दिख सकता है, पर भीतर से वह दुर्बल और अस्थिर होता है।
अर्थ: धर्म जैसा सुख, बल और बन्धु कहीं और नहीं है।
धर्म ही मनुष्य का सच्चा सहारा और रक्षा करने वाला है।
धर्म के बिना व्यक्ति का जीवन असुरक्षित और अस्थिर हो जाता है।
श्लोक 89:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं बन्धुर्धर्म एव परमा गतिः॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख है, धर्म ही वास्तविक धन है और धर्म ही सच्चा बन्धु है।
धर्म ही आत्मा की परम गति है।
धर्म का पालन करने वाला मनुष्य किसी भी परिस्थिति में असहाय नहीं होता।
श्लोक 90:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और स्थायी यश है।
धर्म के सहारे ही जीव निश्चित रूप से मोक्ष प्राप्त करता है।
धर्म आत्मा को शांति और पवित्रता प्रदान करता है।
श्लोक 91:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और सुख है।
धर्मविहीन व्यक्ति चाहे कितना भी शक्तिशाली हो, उसका जीवन दुर्बल और अधूरा है।
धर्म ही आत्मा का असली बल है।
श्लोक 92:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही मनुष्य का सबसे बड़ा लाभ है और धर्म ही आत्मा की परम गति है।
धन, वैभव और पद सब नश्वर हैं, पर धर्म अमर है।
धर्म ही जीव को मोक्ष की ओर ले जाता है।
श्लोक 93:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और असली धन है।
धर्म ही मनुष्य का सच्चा मित्र और साथी है।
अन्य मित्र संकट के समय छोड़ सकते हैं, पर धर्म मृत्यु के बाद भी आत्मा का साथ देता है।
श्लोक 94:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और सुख है।
धर्म का पालन करने वाला मनुष्य निश्चय ही मोक्ष को प्राप्त करता है।
धर्म ही जीवन का आधार और आत्मा का उद्धारक है।
अर्थ: धर्म जैसा सुख, बल और बन्धु कोई नहीं है।
धर्म ही जीवन का स्थायी सहारा है।
धर्मविहीन व्यक्ति अकेला और असफल हो जाता है।
श्लोक 96:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही असली सुख और स्थायी यश है।
सांसारिक यश क्षणिक है, पर धर्मजनित यश अमर है।
धर्म ही आत्मा को मोक्ष की ओर ले जाता है।
श्लोक 97:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परमा गतिः॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल, असली धन और सच्चा सुख है।
धर्म ही आत्मा की परम गति है।
धर्म ही मनुष्य को जीवन और परलोक दोनों में सफल बनाता है।
श्लोक 98:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा लाभ और आत्मा की परम गति है।
धर्म के बिना जीवन और मृत्यु दोनों अधूरे हैं।
धर्म ही जीव को मोक्ष प्रदान करता है।
श्लोक 99:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख, असली धन और सच्चा मित्र है।
धर्म ही मृत्यु के बाद भी आत्मा का साथ देता है।
धर्म ही आत्मा का शाश्वत सहारा है।
श्लोक 100:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और सुख है।
धर्म का पालन करने वाला मनुष्य आत्मिक शांति और मोक्ष को प्राप्त करता है।
धर्म ही जीवन का असली आधार है।
श्लोक 101:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा॥
अर्थ: धर्म ही वास्तविक सुख, असली धन और सच्चा मित्र है।
धर्म ही वह साथी है जो मनुष्य के जीवन और मृत्यु दोनों में साथ रहता है।
अन्य सब संबंध और साधन केवल सांसारिक और क्षणिक हैं।
श्लोक 102:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही परम बल और परम सुख है।
धर्म के सहारे ही लोग आत्मिक शांति पाते हैं और मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
धर्मविहीन जीवन अस्थिर और असफल है।
श्लोक 103:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही मनुष्य का सबसे बड़ा लाभ है।
धर्म ही आत्मा को परम गति तक पहुँचाता है।
धर्म के बिना सारे लाभ व्यर्थ और नश्वर हो जाते हैं।
श्लोक 104:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख है और धर्म ही स्थायी यश देता है।
धर्मविहीन यश क्षणभंगुर है, पर धर्मजनित यश अमर है।
धर्म के कारण ही जीव मोक्ष को प्राप्त करता है।
श्लोक 105:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं बन्धुर्धर्म एव परमा गतिः॥
अर्थ: धर्म ही सच्चा सुख, वास्तविक धन और सच्चा बन्धु है।
धर्म ही आत्मा को मोक्ष की ओर ले जाता है।
धर्मविहीन व्यक्ति अकेला और असुरक्षित हो जाता है।
अर्थ: धर्म जैसा सुख, बल और सहारा कोई नहीं है।
धर्म ही मनुष्य को आत्मिक शक्ति देता है।
धर्मविहीन व्यक्ति दुर्बल और दुखी होता है।
श्लोक 107:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और सुख है।
धर्म ही आत्मा को स्थिर और शुद्ध बनाता है।
धर्म ही जीव को परम गति दिलाता है।
श्लोक 108:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही मनुष्य का सबसे बड़ा लाभ है और धर्म ही आत्मा की परम गति है।
धर्म ही जीवन को सार्थक बनाता है।
धर्मविहीन व्यक्ति का जीवन अधूरा और निष्फल है।
श्लोक 109:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और स्थायी यश देता है।
धर्म का पालन करने वाला मनुष्य निश्चित रूप से मोक्ष प्राप्त करता है।
धर्म ही आत्मा का वास्तविक आभूषण है।
श्लोक 110:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा॥
अर्थ: धर्म ही वास्तविक सुख और धन है।
धर्म ही मनुष्य का सच्चा मित्र और सखा है।
अन्य सभी संबंध नश्वर हैं, धर्म ही शाश्वत है।
श्लोक 111:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और सुख है।
धर्मविहीन व्यक्ति चाहे शक्तिशाली क्यों न दिखे, वह भीतर से निर्बल और असुरक्षित होता है।
धर्म ही आत्मा को स्थिरता देता है।
अर्थ: धर्म जैसा सुख, बल और बन्धु कोई नहीं है।
धर्म ही संकट के समय रक्षा करता है।
धर्मविहीन व्यक्ति जीवन में असफल और अकेला होता है।
श्लोक 113:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं बन्धुर्धर्म एव परमा गतिः॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख, असली धन और सच्चा बन्धु है।
धर्म ही आत्मा की परम गति है।
धर्म से ही जीवन स्थिर और सफल होता है।
श्लोक 114:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और स्थायी यश है।
धर्म ही जीव को मोक्ष की ओर ले जाता है।
धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति सदा सम्मानित होता है।
श्लोक 115:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और सुख है।
धर्म से ही आत्मा को शांति और मुक्ति मिलती है।
धर्मविहीन जीवन दुख और पतन का कारण बनता है।
श्लोक 116:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा लाभ है और धर्म ही आत्मा की परम गति है।
धर्म से ही जीवन पूर्ण होता है।
धर्मविहीन व्यक्ति चाहे वैभवशाली हो, पर भीतर से खाली होता है।
श्लोक 117:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और स्थायी यश है।
धर्म से ही जीव को मोक्ष मिलता है।
धर्म आत्मा का शाश्वत आभूषण है।
श्लोक 118:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा॥
अर्थ: धर्म ही असली सुख और असली धन है।
धर्म ही मनुष्य का सच्चा मित्र और साथी है।
धर्म मृत्यु के बाद भी आत्मा का साथ देता है।
श्लोक 119:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और सुख है।
धर्म का पालन करने वाला ही सच्चा बलवान और सुखी है।
धर्म ही जीव को मुक्ति दिलाता है।
अर्थ: धर्म जैसा सुख, बल और बन्धु कोई नहीं है।
धर्म ही जीवन का स्थायी आधार है।
धर्मविहीन व्यक्ति का जीवन दुःख और असफलता से भरा होता है।
श्लोक 121:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख है और धर्म ही वास्तविक धन है।
धर्म ही सच्चा मित्र और सखा है, जो जीवन और मृत्यु दोनों में साथ रहता है।
अन्य सभी मित्र और धन केवल क्षणिक हैं, पर धर्म शाश्वत है।
श्लोक 122:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल है और धर्म ही सच्चा सुख है।
धर्म से ही लोक और प्रजा सुखी रहते हैं और मृत्यु के बाद आत्मा मोक्ष को प्राप्त करती है।
धर्म के बिना जीवन दुर्बल और अधूरा है।
श्लोक 123:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा लाभ है और धर्म ही जीव की परम गति है।
धन, मित्र और वैभव सब कुछ नश्वर है, लेकिन धर्म अमर है।
धर्म ही आत्मा को स्थायी शांति और मुक्ति दिलाता है।
श्लोक 124:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख है और धर्म ही स्थायी यश प्रदान करता है।
सांसारिक यश क्षणिक है, लेकिन धर्म से प्राप्त यश अमर और शाश्वत है।
धर्मविहीन यश अंततः निरर्थक हो जाता है।
श्लोक 125:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं बन्धुर्धर्म एव परमा गतिः॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और सच्चा धन है।
धर्म ही सबसे बड़ा बन्धु है और वही आत्मा की परम गति है।
धर्मविहीन व्यक्ति अकेला और असहाय हो जाता है।
अर्थ: धर्म जैसा सुख, बल और बन्धु कोई नहीं है।
धर्म ही मनुष्य का सच्चा सहारा है।
धर्मविहीन व्यक्ति चाहे कितना भी बलवान क्यों न हो, अंततः दुखी रहता है।
श्लोक 127:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही परम बल है और धर्म ही सच्चा सुख है।
धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति आत्मिक शांति और मोक्ष दोनों को प्राप्त करता है।
धर्म ही जीव का शाश्वत आधार है।
श्लोक 128:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा लाभ है और धर्म ही आत्मा की परम गति है।
धन, पद और वैभव सब नश्वर हैं, लेकिन धर्म शाश्वत है।
धर्म ही जीव को सच्चा कल्याण देता है।
श्लोक 129:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही असली सुख है और धर्म ही स्थायी यश देता है।
धर्म का पालन करने वाला निश्चित रूप से मोक्ष प्राप्त करता है।
धर्मविहीन व्यक्ति चाहे कितना भी प्रसिद्ध हो, अंततः पतित हो जाता है।
श्लोक 130:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और असली धन है।
धर्म ही मनुष्य का सच्चा मित्र और साथी है, जो मृत्यु के बाद भी आत्मा का साथ देता है।
अन्य सब मित्र और धन केवल सांसारिक और क्षणिक हैं।
श्लोक 131:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और परम सुख है।
धर्म ही लोकों का आधार है और धर्म से ही आत्मा मोक्ष प्राप्त करती है।
धर्मविहीन जीवन केवल दुख और असफलता से भरा होता है।
श्लोक 132:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा लाभ है, क्योंकि धर्म से आत्मा को शांति और संतोष प्राप्त होता है।
धर्म ही जीव की परम गति है और वही मृत्यु के बाद आत्मा का सहारा बनता है।
धन और पद खो सकते हैं, पर धर्म से मिला लाभ कभी नष्ट नहीं होता।
श्लोक 133:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख है और धर्म ही स्थायी यश प्रदान करता है।
सांसारिक यश समय के साथ लुप्त हो जाता है, लेकिन धर्मजनित यश अमर होता है।
धर्म के कारण जीव मोक्ष प्राप्त करता है और सच्चा सम्मान पाता है।
श्लोक 134:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं बन्धुर्धर्म एव परमा गतिः॥
अर्थ: धर्म ही असली सुख और धन है, धर्म ही सबसे बड़ा बन्धु है।
धर्म ही आत्मा को परम गति प्रदान करता है और जीवन को स्थिर बनाता है।
धर्मविहीन व्यक्ति अंततः अकेला और असफल होता है।
अर्थ: धर्म जैसा सुख, बल और बन्धु कोई नहीं है।
धर्म ही मनुष्य को कठिनाइयों में संबल देता है।
धर्मविहीन जीवन दुर्बल और दुखमय होता है।
श्लोक 136:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल है और धर्म ही परम सुख है।
धर्म ही लोकों को स्थिर करता है और जीव को मोक्ष की ओर ले जाता है।
धर्म से रहित जीवन अराजक और असफल हो जाता है।
श्लोक 137:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा लाभ और आत्मा की परम गति है।
धर्म के बिना प्राप्त सभी लाभ नष्ट हो जाते हैं।
धर्म ही वह शाश्वत निधि है, जो परलोक तक साथ रहती है।
श्लोक 138:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही असली सुख और स्थायी यश प्रदान करता है।
धर्म का पालन करने वाला जीव निश्चित रूप से मोक्ष प्राप्त करता है।
धर्म ही आत्मा को निर्मल और स्थिर करता है।
श्लोक 139:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और सच्चा धन है।
धर्म ही मनुष्य का मित्र और सखा है, जो जीवन और मृत्यु दोनों में साथ देता है।
अन्य सब धन और मित्र क्षणिक हैं, पर धर्म शाश्वत है।
श्लोक 140:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और सुख है।
धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति आत्मिक शांति और मुक्ति दोनों पाता है।
धर्म से ही समाज और लोक में स्थिरता आती है।
श्लोक 141:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा लाभ है और धर्म ही आत्मा की परम गति है।
धर्म से ही जीवन पूर्ण और सफल होता है।
धर्म ही वह निधि है, जो मनुष्य के साथ मृत्यु के बाद भी रहती है।
श्लोक 142:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही जीवन का असली सुख है और धर्म से मिलने वाला यश शाश्वत है।
धन या सत्ता से मिला यश समय के साथ मिट जाता है, पर धर्मजन्य यश अमर रहता है।
जो धर्म का पालन करता है, वह अंततः मोक्ष को प्राप्त करता है।
श्लोक 143:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं बन्धुर्धर्म एव परमा गतिः॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और असली धन है।
धर्म ही सच्चा बन्धु है, जो हर परिस्थिति में आत्मा का साथ देता है।
धर्म ही जीवन की परम गति और शांति का साधन है।
अर्थ: धर्म जैसा सुख, बल और बन्धु कोई नहीं है।
संसार का धन, बल और संबंध सब नश्वर हैं, पर धर्म शाश्वत है।
धर्मविहीन जीवन दुर्बल, असुरक्षित और दुःखपूर्ण हो जाता है।
श्लोक 145:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल है और धर्म ही वास्तविक सुख है।
धर्म के बिना मनुष्य चाहे कितना भी शक्तिशाली हो, वह भीतर से निर्बल है।
धर्म ही जीव को स्थायी शांति और मुक्ति प्रदान करता है।
श्लोक 146:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही मनुष्य का सबसे बड़ा लाभ है और धर्म ही आत्मा की परम गति है।
धन, वैभव, सत्ता सब नष्ट हो सकते हैं, पर धर्म कभी नष्ट नहीं होता।
धर्म ही वह अमूल्य निधि है, जो परलोक में भी आत्मा के साथ जाती है।
श्लोक 147:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही असली सुख और अमर यश देता है।
धर्म से ही आत्मा निर्मल होती है और जीव मोक्ष की ओर बढ़ता है।
धर्मविहीन यश केवल भ्रम और क्षणभंगुर होता है।
श्लोक 148:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा॥
अर्थ: धर्म ही असली सुख और धन है।
धर्म ही सच्चा मित्र और साथी है, जो मृत्यु के बाद भी आत्मा का सहारा बना रहता है।
धर्मविहीन व्यक्ति जीवनभर अकेला महसूस करता है।
श्लोक 149:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और सच्चा सुख है।
धर्म ही आत्मा को शांति देता है और मोक्ष की ओर ले जाता है।
धर्म ही समाज और जीवन की स्थिरता का आधार है।
अर्थ: धर्म जैसा सुख, बल और बन्धु कोई नहीं है।
संसार के सारे साधन क्षणभंगुर हैं, पर धर्म ही शाश्वत है।
धर्म ही आत्मा का अमर सहारा है।
श्लोक 151:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और स्थायी यश है।
धर्म से ही मनुष्य का जीवन सफल होता है और मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्त होता है।
धर्म ही मनुष्य का सच्चा आभूषण और आत्मा की शुद्धि का मार्ग है।
श्लोक 152:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा॥
अर्थ: धर्म ही मनुष्य के जीवन का सच्चा सुख और वास्तविक धन है।
धर्म ही ऐसा मित्र है जो मृत्यु के बाद भी आत्मा का साथ देता है।
भौतिक धन और मित्र क्षणभंगुर हैं, पर धर्म शाश्वत साथी है।
श्लोक 153:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और वास्तविक सुख है।
धर्म ही मनुष्य को स्थिरता देता है और आत्मा को मुक्ति तक ले जाता है।
धर्मविहीन व्यक्ति जीवन में कभी स्थायी शांति नहीं पा सकता।
श्लोक 154:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा लाभ है और धर्म ही आत्मा की परम गति है।
धन-संपत्ति और वैभव नष्ट हो सकते हैं, पर धर्म अमर रहता है।
धर्म ही आत्मा को शांति और मोक्ष प्रदान करता है।
श्लोक 155:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और स्थायी यश है।
सांसारिक यश कुछ समय का होता है, पर धर्म से प्राप्त यश अमर है।
धर्म के बल पर जीव मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्त करता है।
श्लोक 156:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं बन्धुर्धर्म एव परमा गतिः॥
अर्थ: धर्म ही असली सुख और धन है।
धर्म ही सच्चा बन्धु है जो संकट और मृत्यु दोनों में आत्मा के साथ रहता है।
धर्म ही जीवन को मोक्ष की ओर ले जाने वाला मार्ग है।
अर्थ: धर्म जैसा सुख, बल और बन्धु संसार में कोई नहीं है।
धर्म ही वह शक्ति है जो संकट के समय रक्षा करती है।
धर्मविहीन व्यक्ति का जीवन दुःख और भय से घिरा रहता है।
श्लोक 158:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और परम सुख है।
धर्म ही आत्मा को स्थिरता और निर्मलता देता है।
धर्मविहीन व्यक्ति कभी आत्मिक शांति को नहीं पा सकता।
श्लोक 159:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा लाभ और आत्मा की परम गति है।
अन्य सभी लाभ नष्ट हो जाते हैं, पर धर्म से मिला लाभ शाश्वत है।
धर्म ही जीव को मोक्ष की ओर ले जाने वाला है।
श्लोक 160:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और स्थायी यश है।
धर्म से ही जीव आत्मिक शांति प्राप्त करता है और मृत्यु के बाद मोक्ष पाता है।
धर्मविहीन यश अल्पकालिक और निरर्थक होता है।
श्लोक 161:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा॥
अर्थ: धर्म ही असली सुख और धन है।
धर्म ही सच्चा मित्र और साथी है जो मृत्यु के बाद भी आत्मा का सहारा बनता है।
धर्म ही आत्मा का शाश्वत सहचर है।
श्लोक 162:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और सुख है।
धर्म ही जीव को स्थायी शांति देता है और मोक्ष तक ले जाता है।
धर्मविहीन जीवन अधूरा और असफल होता है।
अर्थ: धर्म जैसा सुख, बल और बन्धु संसार में अन्य कोई नहीं है।
धर्म ही आत्मा का सच्चा सहारा है।
धर्मविहीन व्यक्ति अंततः अकेला और असहाय रह जाता है।
श्लोक 164:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं बन्धुर्धर्म एव परमा गतिः॥
अर्थ: धर्म ही वास्तविक सुख, असली धन और सच्चा बन्धु है।
धर्म ही आत्मा को परम गति प्रदान करता है।
धर्मविहीन जीवन दुःख और पतन का कारण बनता है।
श्लोक 165:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और स्थायी यश है।
धर्म का पालन करने वाला जीव निश्चित रूप से मोक्ष प्राप्त करता है।
धर्म ही आत्मा को निर्मल और शुद्ध करता है।
श्लोक 166:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और परम सुख है।
धर्म ही आत्मा को स्थिर करता है और जीव को मोक्ष तक ले जाता है।
धर्मविहीन व्यक्ति दुर्बल और दुखी होता है।
श्लोक 167:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च लाभ और आत्मा की परम गति है।
अन्य सभी लाभ अस्थायी हैं, पर धर्म का लाभ अमर है।
धर्म ही जीव को मोक्ष की ओर ले जाता है।
श्लोक 168:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही वास्तविक सुख और अमर यश देता है।
धर्म ही आत्मा को शुद्ध करता है और जीव को मोक्ष की ओर ले जाता है।
धर्मविहीन व्यक्ति अंततः पतित हो जाता है।
श्लोक 169:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा॥
अर्थ: धर्म ही असली सुख और धन है।
धर्म ही सच्चा मित्र और साथी है, जो हर परिस्थिति में आत्मा का साथ देता है।
धर्म ही मनुष्य का अमर सहचर है।
श्लोक 170:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और परम सुख है।
धर्म ही समाज और जीवन का स्थायी आधार है।
धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति आत्मिक शांति और मोक्ष दोनों प्राप्त करता है।
श्लोक 171:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही मनुष्य का सबसे बड़ा लाभ है और वही आत्मा की परम गति है।
धन और वैभव का लाभ केवल जीवन तक है, पर धर्म का लाभ परलोक तक साथ जाता है।
धर्म से ही जीव मोक्ष और शांति को प्राप्त करता है।
श्लोक 172:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही असली सुख है और धर्म से प्राप्त यश शाश्वत है।
धर्मविहीन यश समय के साथ समाप्त हो जाता है।
धर्म ही जीव को मोक्ष की निश्चित प्राप्ति कराता है।
श्लोक 173:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं बन्धुर्धर्म एव परमा गतिः॥
अर्थ: धर्म ही सच्चा सुख और वास्तविक धन है।
धर्म ही आत्मा का सच्चा बन्धु है, जो मृत्यु के बाद भी साथ देता है।
धर्म से ही जीव को परम गति और स्थिरता मिलती है।
अर्थ: संसार में धर्म जैसा सुख, बल और बन्धु कोई नहीं है।
धर्म ही सच्चा सहारा है, जबकि अन्य सब साधन क्षणिक हैं।
धर्मविहीन व्यक्ति अंततः दुख और असफलता से घिर जाता है।
श्लोक 175:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और परम सुख है।
धर्म के बिना बल और सुख अस्थायी हैं।
धर्मविहीन व्यक्ति कभी आत्मिक शांति और मुक्ति को नहीं पा सकता।
श्लोक 176:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही परम लाभ है और वही आत्मा की परम गति है।
धर्म से ही जीव का जीवन सफल होता है और मृत्यु के बाद मोक्ष मिलता है।
अन्य लाभ अस्थायी हैं, पर धर्म का लाभ अमर है।
श्लोक 177:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और अमर यश है।
धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति लोक में सम्मान और परलोक में मोक्ष दोनों पाता है।
धर्मविहीन यश केवल भ्रम और क्षणभंगुर होता है।
श्लोक 178:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा॥
अर्थ: धर्म ही असली सुख और धन है।
धर्म ही सच्चा मित्र और साथी है, जो मृत्यु के बाद भी आत्मा का साथ देता है।
अन्य मित्र और धन समय के साथ छूट जाते हैं, पर धर्म अमर है।
श्लोक 179:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और सच्चा सुख है।
धर्म ही आत्मा को स्थिर करता है और जीव को मोक्ष की ओर ले जाता है।
धर्मविहीन व्यक्ति भीतर से निर्बल और असुरक्षित होता है।
अर्थ: धर्म जैसा सुख, बल और बन्धु कोई नहीं है।
धर्म ही जीवन का स्थायी सहारा है।
धर्मविहीन व्यक्ति चाहे बाहरी रूप से सम्पन्न लगे, भीतर से खाली होता है।
श्लोक 181:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं बन्धुर्धर्म एव परमा गतिः॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख, असली धन और सच्चा बन्धु है।
धर्म ही आत्मा को परम गति तक ले जाता है।
धर्म से रहित जीवन असफल और अधूरा है।
श्लोक 182:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही असली सुख और शाश्वत यश है।
धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति मृत्यु के बाद निश्चित ही मोक्ष को प्राप्त करता है।
धर्म ही आत्मा का अमर आभूषण है।
श्लोक 183:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और परम सुख है।
धर्मविहीन व्यक्ति कभी आत्मिक बलवान नहीं हो सकता।
धर्म ही जीव को मुक्ति दिलाने वाला है।
श्लोक 184:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही मनुष्य का सबसे बड़ा लाभ है और धर्म ही आत्मा की परम गति है।
धर्मविहीन व्यक्ति चाहे कितना भी भौतिक लाभ पा ले, अंततः खाली रह जाता है।
धर्म ही जीव का शाश्वत धन और परलोक का सहारा है।
श्लोक 185:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और अमर यश है।
धर्म के बिना कोई भी यश या वैभव स्थायी नहीं है।
धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति मृत्यु के बाद मोक्ष को निश्चित रूप से प्राप्त करता है।
श्लोक 186:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं बन्धुर्धर्म एव परमा गतिः॥
अर्थ: धर्म ही जीवन का असली सुख और अमूल्य धन है।
धर्म ही सच्चा बन्धु है, जो मनुष्य का हर स्थिति में सहारा बनता है।
धर्म ही आत्मा को परम गति और मोक्ष प्रदान करता है।
श्लोक 187:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही वास्तविक सुख और शाश्वत यश देता है।
संसारिक यश क्षणभंगुर है, पर धर्मजन्य यश अमर और स्थायी है।
धर्म का पालन करने वाला मनुष्य मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्त करता है।
श्लोक 188:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और सच्चा सुख है।
धर्मविहीन बल दुर्बलता का कारण बनता है।
धर्म ही आत्मा को स्थिरता और मोक्ष प्रदान करता है।
अर्थ: धर्म जैसा सुख, बल और सहारा कोई और नहीं है।
धन और वैभव समय के साथ समाप्त हो जाते हैं, पर धर्म अमर है।
धर्मविहीन व्यक्ति अंततः अकेला और दुखी रह जाता है।
श्लोक 190:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही मनुष्य का सबसे बड़ा लाभ और आत्मा की परम गति है।
धर्म से ही जीव का कल्याण होता है।
धर्म ही वह निधि है, जो मृत्यु के बाद भी आत्मा का साथ देती है।
श्लोक 191:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और अमर यश है।
धर्म का पालन करने वाला मनुष्य लोक में सम्मान और परलोक में मोक्ष दोनों प्राप्त करता है।
धर्म ही आत्मा का शाश्वत आभूषण है।
श्लोक 192:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा॥
अर्थ: धर्म ही असली सुख और अमूल्य धन है।
धर्म ही सच्चा मित्र और साथी है, जो मृत्यु के बाद भी आत्मा का सहारा बना रहता है।
अन्य मित्र और धन नश्वर हैं, धर्म शाश्वत है।
श्लोक 193:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और परम सुख है।
धर्मविहीन व्यक्ति चाहे कितना भी शक्तिशाली क्यों न लगे, वह भीतर से निर्बल होता है।
धर्म ही जीव को स्थिरता और मुक्ति देता है।
श्लोक 194:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा लाभ है और धर्म ही आत्मा की परम गति है।
धर्मविहीन लाभ अंततः नाशवान होता है।
धर्म ही जीव को मोक्ष की ओर ले जाता है।
श्लोक 195:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और स्थायी यश है।
धर्म ही आत्मा को शुद्ध करता है और मोक्ष की ओर ले जाता है।
धर्मविहीन व्यक्ति का यश क्षणिक और व्यर्थ है।
श्लोक 196:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं बन्धुर्धर्म एव परमा गतिः॥
अर्थ: धर्म ही असली सुख, सच्चा धन और बन्धु है।
धर्म ही आत्मा को परम गति और शांति प्रदान करता है।
धर्मविहीन जीवन असफल और अधूरा हो जाता है।
श्लोक 197:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और सुख है।
धर्म से ही लोक और जीव की स्थिरता बनी रहती है।
धर्मविहीन व्यक्ति कभी स्थायी शांति नहीं पा सकता।
अर्थ: धर्म जैसा सुख, बल और सहारा कोई नहीं है।
धर्म ही आत्मा का अमर बन्धु है।
धर्म के बिना जीवन असुरक्षित और दुखमय हो जाता है।
श्लोक 199:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा लाभ है और धर्म ही जीव की परम गति है।
धर्म ही आत्मा को परलोक में मोक्ष प्रदान करता है।
धर्मविहीन व्यक्ति अंततः खाली हाथ चला जाता है।
श्लोक 200:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही असली सुख और अमर यश है।
धर्म ही आत्मा को शुद्ध करता है और मोक्ष की ओर ले जाता है।
धर्म का पालन करने वाला ही जीवन और मृत्यु दोनों में सफल होता है।
श्लोक 201:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा॥
अर्थ: धर्म ही असली सुख और अमूल्य धन है।
धर्म ही सच्चा मित्र और साथी है, जो जीवन और मृत्यु दोनों में आत्मा का साथ देता है।
अन्य मित्र और धन नश्वर हैं, पर धर्म शाश्वत है और आत्मा का वास्तविक सहारा है।
श्लोक 202:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और सच्चा सुख है।
धर्मविहीन व्यक्ति चाहे कितना भी शक्तिशाली क्यों न दिखे, वह भीतर से निर्बल रहता है।
धर्म ही जीव को स्थिरता और मोक्ष की ओर ले जाता है।
श्लोक 203:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही मनुष्य का सबसे बड़ा लाभ है और वही आत्मा की परम गति है।
धन, पद और वैभव सब अस्थायी हैं, पर धर्म अमर है।
धर्म ही जीव का शाश्वत खजाना है।
श्लोक 204:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही असली सुख और अमर यश देता है।
धर्मजन्य यश शाश्वत होता है, जबकि सांसारिक यश क्षणभंगुर होता है।
धर्म का पालन करने वाला निश्चित रूप से मोक्ष प्राप्त करता है।
श्लोक 205:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं बन्धुर्धर्म एव परमा गतिः॥
अर्थ: धर्म ही असली सुख, सच्चा धन और बन्धु है।
धर्म ही जीवन और मृत्यु दोनों में आत्मा का साथी है।
धर्म ही जीव को परम गति और शांति प्रदान करता है।
अर्थ: धर्म जैसा सुख, बल और बन्धु संसार में कोई नहीं है।
धन और सत्ता साथ नहीं जाते, पर धर्म हमेशा आत्मा के साथ रहता है।
धर्म ही जीव को स्थायी सहारा देता है।
श्लोक 207:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सर्वोच्च बल और सुख है।
धर्म ही आत्मा को स्थिर और पवित्र करता है।
धर्म से रहित व्यक्ति आत्मिक दृष्टि से दुर्बल और दुखी होता है।
श्लोक 208:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा लाभ और आत्मा की परम गति है।
सांसारिक लाभ क्षणिक है, पर धर्मजन्य लाभ अमर है।
धर्म ही जीव को मोक्ष की ओर ले जाता है।
श्लोक 209:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं यशः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही परम सुख और स्थायी यश है।
धर्म से ही आत्मा शुद्ध और शांत होती है।
धर्म का पालन करने वाला जीव निश्चित रूप से मोक्ष प्राप्त करता है।
श्लोक 210:
धर्म एव परं सौख्यं धर्म एव परं धनम्।
धर्म एव परं मित्रं धर्म एव परं सखा॥
अर्थ: धर्म ही सच्चा सुख और असली धन है।
धर्म ही सच्चा मित्र और साथी है, जो जीवन और मृत्यु दोनों में आत्मा का सहारा बनता है।
अन्य धन और मित्र अस्थायी हैं, पर धर्म शाश्वत है।
श्लोक 211:
धर्म एव परं बलं धर्म एव परं सुखम्।
धर्मेणैव सदा लोका गच्छन्ति परमां गतिम्॥
अर्थ: धर्म ही मनुष्य का सबसे बड़ा बल और वास्तविक सुख है।
धर्म का पालन करने से ही लोक स्थिर रहते हैं और समाज में शांति बनी रहती है।
धर्मविहीन जीवन केवल दुख, अशांति और पतन लाता है।
श्लोक 212:
धर्मो हि परमो लाभो धर्मो हि परमा गतिः।
धर्मेणैव सदा लोका मोक्षमाप्नोति निश्चितम्॥
अर्थ: धर्म ही सबसे बड़ा लाभ है और वही आत्मा की परम गति है।
धर्म से ही मनुष्य जीवन सफल होता है और मृत्यु के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है।
इसलिए धर्म का पालन ही मनुष्य का सर्वोच्च कर्तव्य है।
🌸 पंचम अध्याय – समापन सारांश 🌸
विदुर नीति का पाँचवाँ और अंतिम अध्याय सबसे विशाल और गहन है।
इसमें महात्मा विदुर ने बार-बार यह उपदेश दिया कि
धन, बल, यश, मित्र और बन्धु – सब नश्वर हैं,
केवल धर्म ही शाश्वत है।
धर्म ही मनुष्य का सच्चा धन, असली बल,
वास्तविक सुख और अमर यश है।
धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति मृत्यु के बाद भी
मोक्ष प्राप्त करता है।
✨ निष्कर्ष यही है कि धर्म ही जीवन का आधार है।
धर्म से ही सुख, शांति और मोक्ष – सब कुछ प्राप्त होता है। ✨