केवलं चिद्रूपमेव तदासीद् विष्णुरव्ययः॥”
विष्णु पुराण अठारह महापुराणों में अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसके प्रथम भाग में सृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्मा का जन्म, पंचमहाभूतों का आविर्भाव और धर्म की स्थापना का वर्णन मिलता है। यह कथा हमें केवल ब्रह्मांड की रचना की जानकारी नहीं देती, बल्कि जीवन के गूढ़ रहस्यों को भी खोलती है। इस अध्याय में बताया गया है कि यह संसार आकस्मिक नहीं है, बल्कि एक दिव्य योजना और संतुलन पर आधारित है।
सृष्टि से पूर्व की स्थिति (Before Creation)
विष्णु पुराण बताता है कि सृष्टि से पहले न आकाश था, न धरती, न दिन था न रात। केवल एक अनंत चेतना विद्यमान थी, जिसे परम ब्रह्म या महाविष्णु कहा गया। वहाँ न ध्वनि थी न गति, न काल का कोई बंधन था। यह अवस्था पूर्ण शून्यता जैसी प्रतीत होती थी लेकिन वास्तव में उसमें समस्त संभावनाएँ छिपी हुई थीं।
यही अवस्था हमें सिखाती है कि शून्यता भी एक शक्ति है। जब हम सब कुछ खो देते हैं, तब भी एक अदृश्य ऊर्जा हमें आगे बढ़ाने के लिए मौजूद रहती है।
पंचमहाभूतों की रचना (Creation of Five Elements)
महाविष्णु की इच्छा से सर्वप्रथम आकाश प्रकट हुआ। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, और जल से पृथ्वी का जन्म हुआ। इन्हें पंचमहाभूत कहा जाता है। इन्हीं तत्वों से आगे चलकर ब्रह्मांड की प्रत्येक वस्तु बनी।
जैसे आकाश ध्वनि का, वायु स्पर्श का, अग्नि रूप का, जल रस का और पृथ्वी गंध का आधार है। इस प्रकार भौतिक जगत का हर कण इन्हीं पांच तत्वों से निर्मित है।
ब्रह्मा का जन्म (Birth of Brahma)
महाविष्णु की नाभि से एक कमल निकला। उस कमल पर चार मुखों वाले ब्रह्मा प्रकट हुए। ब्रह्मा ने चारों ओर दृष्टि डाली तो उन्हें केवल जल ही जल दिखाई दिया। वे असमंजस में पड़ गए कि वे कौन हैं और उनका उद्देश्य क्या है।
तब महाविष्णु ने उन्हें दर्शन दिए और ज्ञान प्रदान किया। उन्होंने कहा — “हे ब्रह्मा, तुम सृष्टि के रचयिता हो। यह जगत तुम्हारे द्वारा व्यवस्थित होगा। किंतु तुम्हारी शक्ति भी मुझसे ही उत्पन्न है।”
त्रिमूर्ति की स्थापना (Establishment of Trinity)
सृष्टि के संचालन हेतु त्रिमूर्ति की स्थापना हुई। – ब्रह्मा को सृष्टि निर्माण का कार्य मिला। – विष्णु को पालन-पोषण और व्यवस्था का दायित्व दिया गया। – शिव को संहार और पुनःरचना का कार्य सौंपा गया।
इस व्यवस्था से स्पष्ट होता है कि सृष्टि तभी संतुलित रह सकती है जब रचना, पालन और संहार तीनों निरंतर चलें। यदि केवल रचना हो और संहार न हो तो अव्यवस्था बढ़ेगी। यदि केवल संहार हो तो जीवन संभव नहीं। यही कारण है कि त्रिमूर्ति अनिवार्य है।
जीवों की उत्पत्ति (Origin of Beings)
ब्रह्मा ने सबसे पहले प्रजापतियों को उत्पन्न किया। फिर ऋषियों, देवताओं और मनुष्यों की रचना की। प्रत्येक जीव को उसके गुण और कर्म के अनुसार जीवन प्रदान किया गया। यही से कर्म और धर्म की परंपरा शुरू हुई।
मनुष्य को विशेष स्थान मिला क्योंकि उसमें विवेक और धर्म पालन की क्षमता दी गई। यह स्पष्ट हुआ कि जीव का उत्थान या पतन उसके कर्मों पर निर्भर करता है।
धर्म और यज्ञ की स्थापना (Establishment of Dharma & Yajna)
विष्णु पुराण में बताया गया है कि धर्म के बिना सृष्टि अस्थिर हो जाती है। इसलिए ब्रह्मा ने मनुष्यों को यज्ञ और धर्म का मार्ग दिखाया। यज्ञ का अर्थ केवल अग्नि में आहुति डालना नहीं, बल्कि आत्मबलिदान, सेवा और समर्पण भी है।
समाज की व्यवस्था के लिए वर्ण और आश्रम धर्म की नींव डाली गई। प्रत्येक वर्ग को उसके कर्तव्य सौंपे गए ताकि संतुलन बना रहे।
ब्रह्मा का दिन और प्रलय (Cycle of Time)
ब्रह्मा का एक दिन 1000 महायुगों के बराबर माना गया है। ब्रह्मा के दिन में सृष्टि चलती है और रात में प्रलय होता है। यह चक्र निरंतर चलता रहता है।
इससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि कुछ भी स्थायी नहीं है। परिवर्तन ही जीवन का सत्य है और केवल परमात्मा ही शाश्वत हैं।
गूढ़ संदेश (Deeper Message)
यह कथा हमें सिखाती है कि संसार की हर वस्तु अस्थायी है। जन्म और मृत्यु का चक्र निरंतर चलता रहता है। लेकिन धर्म, भक्ति और सत्य का पालन करने वाला ही मोक्ष प्राप्त करता है।
जब हम अपने अहंकार को त्यागकर ईश्वर की शरण लेते हैं, तभी सृष्टि का वास्तविक उद्देश्य समझ में आता है।
निष्कर्ष (Conclusion)
विष्णु पुराण का प्रथम भाग हमें बताता है कि यह संसार आकस्मिक नहीं है। यह एक सुव्यवस्थित योजना है जिसे परमात्मा स्वयं संचालित करते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव — त्रिमूर्ति — सृष्टि को संतुलित रखते हैं। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह धर्म और भक्ति के मार्ग पर चले और जीवन को सार्थक बनाए।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥”
— श्रीमद्भगवद्गीता